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क्या अफगानिस्‍तान में तालिबान दे पाएगा स्थायी सरकार, कैसी होगी नई हुकूमत, जानें जवाब

अफगानिस्तान की सत्ता पर कब्जा जमाने के बाद अब तालिबान वहां सरकार बनाने की तैयारियों में जुटा है। बड़ा सवाल यह कि तालिबान की सत्ता अफगानिस्तान के लिए कैसी साबित होगी? क्या तालिबान वहां बेहतर और स्थायी सरकार दे पाएगा? जानें हर सवाल का जवाब...

By Krishna Bihari SinghEdited By: Published: Sat, 04 Sep 2021 11:07 PM (IST)Updated: Sun, 05 Sep 2021 05:13 AM (IST)
क्या अफगानिस्‍तान में तालिबान दे पाएगा स्थायी सरकार, कैसी होगी नई हुकूमत, जानें जवाब
अफगानिस्तान की सत्ता पर कब्जा जमाने के बाद अब तालिबान वहां सरकार बनाने की तैयारियों में जुटा है।

वाशिंगटन [द न्यूयॉर्क टाइम्स]। अफगानिस्तान की सत्ता पर कब्जा जमाने के बाद अब तालिबान वहां सरकार बनाने की तैयारियों में जुटा है। इस बीच सबसे बड़ा सवाल यही उठ रहा है कि तालिबान की सत्ता अफगानिस्तान के लिए कैसी साबित होगी? क्या तालिबान वहां बेहतर और स्थायी सरकार दे पाएगा? अफगानिस्तान के करीब 3.8 करोड़ नागरिक सांसे थामे यही इंतजार कर रहे हैं कि नया निजाम कैसा होगा। 1996 से 2001 के बीच अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता का अनुभव पूरी दुनिया के लिए कुछ खास अच्छा नहीं रहा है। हालांकि इस बार तालिबान दुनिया को यह भरोसा दिलाने में जुटा है कि वह बदल चुका है। दुनिया के अन्य हिस्सों में भी इस तरह की विद्रोही शक्तियां हिंसा से सत्ता पर काबिज हुई हैं । कुछ ने समय के साथ खुद को ढाला और सफलता से सत्ता को संभाला। वहीं, कई समय के साथ बिखर गए। इन अनुभवों से मिले कुछ निष्कर्षों पर डालते हैं नजर...

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राजनीतिक दलों जैसा दिखने की कोशिश

अमेरिकी अखबार 'द न्यूयॉर्क टाइम्स' ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि ऐसे विद्रोही संगठन सत्ता पर कब्जा करते ही खुद को पार्टी आधारित अन्य सरकारों जैसा बनाने का प्रयास करते हैं। एक समय चीन की कम्युनिस्ट पार्टी भी विद्रोहियों का समूह थी, जिसने 1949 में सत्ता पर कब्जा किया था। इस समय यह पार्टी पूरी तरह से एकीकृत है और असहमति के लिए यहां कोई जगह नहीं है। हिंसा से सत्ता हथियाने वाले समूह अक्सर सत्ता का यही माडल अपनाते हैं क्योंकि यह उनके अपने समूह से मिलता-जुलता रहता है।

लोकतंत्र से नफरत

ऐसे समूह खुद को जनता का प्रतिनिधि तो कहते हैं, लेकिन लोकतंत्र से दूरी रखते हैं। उन्हें चुनाव, विरोध प्रदर्शन और असहमति से खतरे का बोध होता है। चीन की सत्ता पर कब्जे के बाद माओ जेडांग ने बुद्धिजीवियों, पत्रकारों व कई अन्य को खुले मन से नई सरकार की आलोचना करने को कहा था। हालांकि बाद में उसने ऐसा करने वाले कई लोगों को मौत के घाट उतार दिया।

ऐसे चलाते हैं सत्‍ता

रिपोर्ट कहती है कि ऐसे आतंकी संगठन अधिनायकवादी तरीके से सत्ता चलाते हैं, जिसमें सत्ता पर किसी व्यक्ति की पकड़ रहती है। ये संगठन किसी हाल में उस ताकत को गंवाना नहीं चाहते हैं, जिसे उन्होंने लंबी लड़ाई से हासिल किया है। शुरुआती दिनों में उनमें जनता से नकार दिए जाने, पुरानी सत्ता के समर्थकों के विद्रोह और अपने ही भीतर के विरोधियों का डर लगातार बना रहता है।

निशाने पर पुरानी सत्ता के समर्थक

ये समूह उन सभी बड़े पदों पर नियंत्रण की कोशिश करते हैं, जहां पुरानी सत्ता के समर्थक हो सकते हैं। कई बार इसके लिए आतंकी समूह हिंसा का भी सहारा लेते हैं। माओ ने सबसे पहले गांवों के जमींदारों की ताकत छीनी थी। ये जमींदार दक्षिणपंथी माने जाते थे। इनमें से बड़ी संख्या में लोगों को मार डाला गया था। एक अनुमान के मुताबिक, माओ ने 20 लाख लोगों को मौत के घाट उतार दिया था।

क्‍यूबा में हुआ था लाखों का विस्‍थापन

सन 1959 में क्यूबा में भी सत्ता पर कब्जा जमाने के बाद विद्रोहियों ने पिछली सरकार के शुभचिंतक माने जाने वाले मध्यम एवं उच्च वर्ग वालों को दुश्मन की तरह माना था। करीब ढाई लाख लोगों को देश छोड़कर भागना पड़ा था। तालिबान का कहना है कि वह अफगानिस्तान में ऐसा नहीं करेगा। वह देश के पढ़े-लिखे वर्ग के साथ मिलकर काम करेगा।

कभी-कभी दिखे हैं कुछ अलग उदाहरण

सन 1986 में युगांडा की सत्ता पर कब्जा करने वाले विद्रोहियों ने पिछली सरकार के समर्थकों को माफी दे दी थी। इसी तरह 1991 में इथियोपिया पर कब्जा करने वाले आतंकियों ने अपने आप को जनता का प्रतिनिधि साबित करने के लिए पूरे देश में शांति एवं स्थायित्व के लिए समितियां गठित की थीं। 1994 में रवांडा में सत्ता पाने वाले तुत्सी लड़ाकों के समूह ने भी शांति और सबको साथ लेकर चलने का भरोसा दिलाया था। इन तीनों ने दिखावे के लिए ही सही लेकिन चुनाव कराए थे।

अनुशासित दिखाने का छलावा

जंग और हिंसा से सत्ता पर काबिज होने वाले ज्यादातर आतंकी व विद्रोही संगठनों की कोशिश होती है कि उन्हें अन्य देशों से राजनयिक स्वीकार्यता मिले। विदेश से सहायता उनके लिए जरूरी होती है। उन्हें पता होता है कि सिर्फ सरकारी भवनों पर कब्जा कर लेने से ही सत्ता नहीं मिल जाती। प्राय: दुनिया से स्वीकार्यता की चाहत में कई बार ऐसे संगठन सत्ता पर कब्जे के बाद खुद को अनुशासित दिखाने की कोशिश करते हैं।

दुनिया से स्वीकार्यता की दरकार

काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद ऐसे कई दृश्य सामने आए, जिनमें स्थानीय स्तर के कई नेताओं को तालिबान का स्वागत करते दिखाया गया। हालांकि तालिबान के सामने असल चुनौती अन्य देशों की सरकारों से स्वीकार्यता पाना है। इससे उसे पुनर्निर्माण के लिए जरूरी मदद मिलने का रास्ता खुलेगा। 


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