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West Bengal Elections: बंगाल में सामान्य दिनों में राजनीतिक हिंसा और चुनावी मौसम में हिंसा के अलग-अलग मायने

West Bengal Elections सियासी विश्लेषक मानते हैं कि बंगाल में सामान्य दिनों में राजनीतिक हिंसा और चुनावी मौसम में हिंसा के अलग मायने हैं। वैसे तो राजनीतिक हिंसा का प्रमुख कारण इलाके पर वर्चस्व कायम करना होता है। वहीं चुनावी हिंसा की जद में जैसे भी हो जीतना है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Tue, 27 Apr 2021 09:24 AM (IST)Updated: Tue, 27 Apr 2021 09:30 AM (IST)
West Bengal Elections: बंगाल में सामान्य दिनों में राजनीतिक हिंसा और चुनावी मौसम में हिंसा के अलग-अलग मायने
तृणमूल के हमले में जख्मी होने के बाद अस्पताल में भर्ती काशीपुर-बेलगछिया से भाजपा प्रत्याशी शिवाजी सिंघा राय। फाइल

कोलकाता, जयकृष्ण वाजपेयी। West Bengal Elections बंगाल में चुनावी हिंसा का इतिहास बहुत पुराना है। वर्ष 1960 सेे 70 के बीच राज्य में जो हिंसा शुरू हुई वह आज तक बदस्तूर जारी है। बंगाल के चुनावों में हमेशा से हिंसा को लेकर सवाल उठते रहे हैं। सत्ता में आने से पहले ममता बनर्जी वाममोर्चा पर हिंसा का आरोप लगाती थीं। उसी के खिलाफ उन्होंने संघर्ष किया और सत्ता के शिखर पर पहुंचीं। अब तृणमूल पर भी उसी हिंसा का आरोप भाजपा की ओर से लग रहा है।

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह तक आरोप लगा रहे हैं कि पिछले तीन वर्षों में उनकी पार्टी के 135 से अधिक कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई। हालांकि तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी आरोपों को खारिज कर भाजपा को ही दंगाई पार्टी बताती हैं। पर, सात चरणों के विधानसभा चुनाव के दौरान जो हिंसा हुई है उसके संकेत बड़े हैं। पिछले दो दशकों के चुनावी इतिहास पर नजर डालें तो पता चलता है कि हिंसा से सूबे की सियासी तस्वीर बिगड़ती रही है।

चुनाव आयोग मतदान के दौरान सुरक्षा के चाक चौबंद इंतजाम करने के दावे करता रहा है, लेकिन चरण दर चरण हिंसा होती रही। मतदान का एक भी चरण ऐसा नहीं बीता जिसमें खून नहीं बहा हो। यहां तक कि प्रत्याशियों को भी नहीं बख्शा गया। सोमवार को सातवें चरण में 34 सीटों पर शांतिपूर्ण मतदान के लिए आयोग ने हर संभव उपाय किए, लेकिन हालत वही ढाक के तीन पात। बंगाल में हिंसा के इतिहास को देखते हुए ही आयोग ने शांतिपूर्ण, निर्बाध मतदान के लिए हर चरण में एक लाख से अधिक केंद्रीय सुरक्षा बलों और पुलिस र्किमयों को तैनात किया। परंतु हिंसा रोकने में कामयाबी नहीं मिली। वैसे मतदाताओं को भयमुक्त माहौल देने की पूरी कोशिश अब भी जारी है। देखने वाली बात है कि अंतिम चरण में स्थिति क्या होती है?

बंगाल की चुनावी राजनीति पर पैनी नजर रखने वाले विश्लेषकों की मानें तो हिंसा के पीछे महत्वपूर्ण सियासी संकेत होते हैं। उनके मुताबिक राज्य में हिंसा का राजनीतिक बदलाव से गहरा संबंध रहा है। हिंसा राज्य में राजनीतिक परिवर्तन का बड़ा कारक रही है। वर्ष 2006 के विधानसभा चुनाव, 2008 के पंचायत चुनाव, 2009 के लोकसभा चुनाव, 2010 के शहरी निकाय और 2011 के विधानसभा चुनाव समेत 2018 के पंचायत और 2019 के लोकसभा चुनाव इसके उदाहरण हैं। वर्ष 2006 के विधानसभा चुनाव में भले ही वाममोर्चा को जीत मिली थी, लेकिन उसकी सियासी जमीन उसी समय खिसकने लगी जिसका परिणाम 2008 और 2009 के पंचायत व लोकसभा चुनाव में दिखाई दिया था। इसी तरह से 2018 के पंचायत और 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान भी हिंसा हुई और नतीजा सर्वविदित है।

देखा जाए तो वर्ष 2011 के विधानसभा चुनाव के बाद यह पहला मौका है जब तृणमूल के सामने एक सशक्त प्रतिद्वंद्वी है। वर्ष 2018 के पंचायत चुनाव में व्यापक हिंसा के बाद भी भगवा पार्टी मुख्य विपक्षी बन गई और 2019 के लोकसभा चुनाव में 40 फीसद से अधिक वोट प्राप्त कर 42 में से 18 सीटें जीत गई। हिंसा की एक बड़ी वजह भाजपा का यह उभार भी है। बंगाल में करीब 30 फीसद मुसलमान और लगभग 29 फीसद अनुसूचित जाति व जनजाति के मतदाता हैं। कभी वामपंथियों का वोटबैंक माने जाने वाले मुसलमान व एससी-एसटी 2011 से ही तृणमूल की ओर चले गए। वहीं पिछले पंचायत व लोकसभा चुनाव में एससी एसटी वोट भाजपा की ओर मुड़ गया। वहीं तृणमूल और वामदलों के जनाधार में आ रहे बदलाव ने भाजपा को दो मोर्चों ‘पंथ और वर्ग’ को एकजुट करने का मौका दे दिया। साथ ही भाजपा को शहरी बंगाल के मध्यम वर्ग के हिंदुओं और ग्रामीण बंगाल में एससी-एसटी समेत अन्य पिछड़ा वर्ग के बीच अपनी पैठ बनाने का अवसर प्रदान कर दिया। इसी का नतीजा है कि आज भगवा ब्रिगेड सत्ता के रेस में शामिल है।

ऐसे में चुनावी हिंसा अप्रत्याशित नहीं है, क्योंकि हर हाल में चुनाव जीतने की जो प्रवृत्ति है वह चुनाव के दौरान खून-खराबे को और हवा दे रही है। इन्कार के बावजूद अधिकांश मामलों में हिंसा का आरोप तृणमूल पर लग रहा है। मतदाताओं को धमकी देना हो या फिर विपक्षी दलों पर हमले, यह बताने को काफी है कि इस हिंसा के निहितार्थ क्या हैं? सियासी विश्लेषक मानते हैं कि बंगाल में सामान्य दिनों में राजनीतिक हिंसा और चुनावी मौसम में हिंसा के अलग-अलग मायने हैं। वैसे तो राजनीतिक हिंसा का प्रमुख कारण इलाके पर वर्चस्व कायम करना होता है। वहीं चुनावी हिंसा की जद में जैसे भी हो जीतना है। यही वजह है कि आयोग की लाख कोशिशों के बावजूद हिंसा मुक्त चुनाव नहीं हो पा रहा है।

[राज्य ब्यूरो प्रमुख, बंगाल]


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