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Parakram Diwas: राष्ट्रवादी विचारधारा व देसी संस्कृति के पोषक नेताजी सुभाष चंद्र बोस

Parakram Diwas वर्तमान भारत की तमाम समस्याएं दरअसल आजादी के बाद सुभाष चंद्र बोस जैसे नेताओं की देसी नीतियों को दरकिनार कर यूरोप केंद्रित नीतियों को अपनाना रहा क्योंकि इससे एक जीवित संस्कृति को एक शोषक संस्कृति के वर्चस्व की भेंट चढ़ा दिया गया।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Sat, 23 Jan 2021 09:40 AM (IST)Updated: Sat, 23 Jan 2021 09:41 AM (IST)
Parakram Diwas: राष्ट्रवादी विचारधारा व देसी संस्कृति के पोषक नेताजी सुभाष चंद्र बोस
सुभाष चंद्र बोस जैसे लोग भारत की देसी आधुनिकता के राजनीतिक प्रतीक पुरुष की तरह याद किए जाने चाहिए

कोलकाता, आदित्य कुमार गिरि। Parakram Diwas भारतीय राजनीति की दो धाराएं हैं। पहली जिसे महफिल मिली और दूसरी जिसे भुला दिया गया। ठीक-ठीक कहें तो भुलाया भी नहीं गया, बल्कि एक मृत प्रतीक की तरह उन्हें चिन्हित तो किया गया, लेकिन ड्राइंग रूम की उस निर्जीव पेंटिंग की तरह, जो दीवार पर तो बनी रहती है, लेकिन न घर वालों का और न ही उस में घर आए मेहमानों का ध्यान खींच पाती है। उपरोक्त संदर्भ में देखें तो जवाहरलाल नेहरू पहले और नेताजी सुभाष चंद्र बोस दूसरी धारा के प्रतिनिधि थे।

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दरअसल सुभाष चंद्र बोस भारतीय राजनीति के एक ऐसे नायक सिद्ध हुए जिन्हें विडंबनाओं ने जीवनकाल में तो जकड़े ही रखा, साथ ही मृत्यु के वर्षो बाद भी अपनी गिरफ्त से मुक्त नहीं किया है। वह इतिहास के ऐसे अध्याय हैं जिन्हें भारत की आजादी के बाद लिखी इतिहास की किताब में तब भी रखने में हिचक थी और आज भी तमाम अड़चनें आ रही हैं। सुभाष चंद्र बोस के 125वें जन्मदिन पर उनकी ऐतिहासिक अवस्थिति को लेकर हैरान कर देनेवाली असहजता के आलोक में कुछ तथ्यों का उल्लेख किया जाना जरूरी है।

आजादी के बाद हमारे देश में राष्ट्रवाद का ढांचा : हम जानते हैं कि दुनिया के तमाम उपनिवेशवादी देशों में आजादी के बाद राजनीति कुछ व्यक्तित्वों या चिन्हों या फिर आदर्शो के इर्द-गिर्द खड़ी हुई या कहें खड़ी करने की कोशिश की गई। कुल मिलाकर साम्राज्यवादी ढांचे से बाहर निकलने के लिए कोई देसी या राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े व्यक्तित्वों का रूपक तैयार करने के सांस्थानिक प्रयास हुए। जिसे एक प्रकार से यूरोप का रेनेसां कहा गया, वह असल में गैर यूरोपीय देशों के लिए नारकीय या अंधकार-काल रहा, क्योंकि यूरोप के उभार की उन्हें कीमत चुकानी पड़ी। यह इतना महंगा सौदा रहा कि जिन देशों में इसने पैर पसारे वे देश सांस्कृतिक और मानसिक रूप से रुग्ण हो गए। आजादी के बाद उन देशों ने उस रुग्ण प्रभाव को खत्म करने के लिए ही देसी रूपक गढ़ने के प्रयास किए, क्योंकि यही एक तरीका था, जिसके द्वारा स्व की तलाश कर कोई संस्कृति पुनर्जीवित हो सकती थी। दुनिया के अनेक देशों की तरह भारत भी एक ऐसा ही देश था, जो करीब दो सौ वर्षो तक ब्रिटिश उपनिवेश रहा और 15 अगस्त, 1947 को मुक्त हुआ तो उसके सामने भी नव निर्माण का भगीरथ उत्तरदायित्व आया।

भारत के लिए यह और भी जरूरी था, क्योंकि यह दुनिया की सबसे प्राचीन और गौरवशाली संस्कृति का वाहक था। किसी और मस्तिष्क से जीना या रहना उसके लिए घोर लज्जा की बात होती, लेकिन ठीक इसी समय भारत में कुछ ऐसी राजनीतिक परिस्थितियां बन गईं जिसने रूपकों के लिए आदर्शो को चिन्हित करने में थोड़ा संकुचन का परिचय दिया। ठीक इसी दौर में नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे नेताओं की वैचारिक तथा दृष्टिगत उपेक्षा हुई। इससे जिस देसी भारत की परिकल्पना का स्वप्न लेकर स्वतंत्रता का संग्राम शुरू हुआ था, वह सांस्कृतिक-साम्राज्यवाद की मजबूत गिरफ्त में हमेशा के लिए फंसकर रह गया।

सूक्ष्मा से देखा जाए तो नेताजी सुभाष चंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरू की दृष्टि में जो बुनियादी फर्क था, वही फर्क आज के भारत और जिस भारत के स्वप्न के साथ देश की स्वतंत्रता की लड़ाई का बिगुल फूंका गया, उसमें भी है। नेहरू की धारा अजीब तरह से उन स्वप्नों के परे जाकर यूरोपीय मॉडल को आत्मसात कर आगे बढ़ गई और शारीरिक रूप से रहस्य रहे सुभाष चंद्र बोस वैचारिक रूप से भी किसी अंधेरी गुफा में हमेशा के लिए दफन कर दिए गए।

पाठ्यक्रमों तक समेट दिए गए अनेक प्रतीक पुरुष : आज नेताजी पाठ्यक्रमों में एक रहस्यमयी वीर नेता की तरह विराजमान तो हैं, लेकिन वह भारतीय राजनीति में कितना और कैसा दखल रखते थे तथा आजादी को लेकर उनकी क्या परिकल्पना थी, यह कहीं नहीं है। उपरोक्त पहली धारा ने आजाद भारत में एक ऐसी व्यवस्था बनाई जिसमें सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह और श्री अर¨वद जैसे लोग वीर की तरह चित्रित तो किए गए, लेकिन अजीब तरह से श्रीहीन और मुक्तक प्रयासों की तरह मानो वे कोई उत्साही क्रांतिकारी से अधिक कुछ न थे। जबकि देश और उसके भविष्य को लेकर उनकी एक मजबूत समझ तथा मौलिक दृष्टि थी, लेकिनपहली धारा के पास मौलिकता की जगह अंग्रेजी राज का ही देसी संस्करण लिया हुआ एक भारतीय मस्तिष्क था।

आजादी के इतने बरस बाद आज जब भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार के लोग उस दूसरी धारा को मुख्यधारा में लाने को प्रयासरत हैं तो उन्हें नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं, क्योंकि सत्तर वर्षीय सिस्टम इतने गहरे पैठ चुका है कि उसे दूसरी हर महत्वपूर्ण धारा अस्वाभाविक तथा असहज लग रही है। सुभाष चंद्र बोस को मुख्यधारा में स्थापित करने में असल में इसी कारण अड़चन आ रही है। कहां तो होना यह चाहिए था कि दूसरी धारा ही मुख्यधारा होती और कहां हुआ यह कि दूसरी धारा हाशिये की धारा बनकर रह गई।

आज के भारत की सारी समस्याएं असल में पहली धारा द्वारा अपनाई यूरोप केंद्रित नीतियां ही थीं, क्योंकि एक जीवित संस्कृति को एक शोषक संस्कृति के वर्चस्ववादी रेनेसां की भेंट चढ़ा दिया गया। सुभाष चंद्र बोस जैसे लोग भारत की देसी आधुनिकता के राजनीतिक प्रतीक पुरुष की तरह याद किए जाने चाहिए और देश की राजनीति को अगर भारत की आधुनिकता की तलाश करनी हो तो सुभाष जी और प्रकारांतर से दूसरी धारा के दृष्टिकोणों पर खुली बहस करनी होगी, ताकि इतिहास के दबाए सत्य से पर्दा हट सके।

[अध्यापक, हिंदी विभाग, सेठ आनंदराम जयपुरिया कॉलेज, कलकत्ता विश्वविद्यालय]


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