बंगाल में 17वीं विधानसभा के प्रथम सत्र के बीच सदन में ‘शून्य’ सुना रहा अहंकार के हश्र की दास्तां
वर्ष 2006 के विधानसभा चुनाव में वाममोर्चा को 235 सीटों वाली बड़ी जीत मिली थी। उनमें से सिर्फ चार बड़े दलों माकपा भाकपा आरएसपी और फारवर्ड ब्लाक को ही 227 सीटें मिली थीं। लेकिन इसके पांच साल बाद 2011 में वाममोर्चा 62 सीटों पर सिमट गया।
कोलकाता, जयकृष्ण वाजपेयी। समय बड़ा बलवान है। बंगाल में 17वीं विधानसभा का प्रथम सत्र गत शुक्रवार को हंगामे के साथ शुरू हुआ। भाजपा ने शोर-शराबा किया तो तृणमूल कांग्रेस के सदस्यों ने नारे से जवाब दिया। परंतु इस हंगामे के बीच सदन में एक ‘शून्य’ भी था, जो अहंकार के हश्र की दास्तां सुना रहा था। ‘हम 235 हैं, वे 30 हैं।’ अहंकार भरी यह बात करीब 15 साल पहले बंगाल के तत्कालीन वामपंथी मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने कही थी। उनके मुंह से अनायास यह नहीं निकला था। उन्होंने वामपंथी सरकार के मुखिया के रूप में 2006 के विधानसभा चुनाव में 235 सीटों पर भारी जीत दर्ज करने और तृणमूल को महज 30 सीटें मिलने पर यह कहा था, जिसमें अहंकार साफ झलक रहा था। पर डेढ़ दशक में ही काल का चक्र ऐसे घूमेगा, इसका शायद ही किसी को भान होगा।
बंगाल विधानसभा का यह प्रथम अधिवेशन है, जिसमें ‘मैं हूं वामपंथी’ और ‘लाल सलाम’ कहने वाला कोई नहीं है। साथ ही एक भी कांग्रेसी नहीं है। एक-दूसरे से हाथ मिलाकर चुनाव लड़ने के बावजूद वामपंथियों की झोली में एक ओर बड़ा शून्य आया तो दूसरी ओर चुनावी इतिहास में पहली बार कांग्रेस का भी खाता नहीं खुला। इस विधानसभा ने बुद्धदेव से पहले दिग्गज ज्योति बसु का प्रभाव और सुभाष चक्रवर्ती व श्यामल चक्रवर्ती जैसे कामरेडों का जोर भी देखा है। कई कद्दावर वामपंथी नेताओं के राजनीतिक जीवन में उतार-चढ़ाव आया, लेकिन ऐसा शून्य कभी नहीं देखा था। यह शून्य डेढ़ दशक बाद बुद्धदेव की बातों को याद दिलाते हुए कह रहा है, अहंकारियों का अंत ऐसे ही होता है।
भारत को आजादी मिलने से कुछ माह पहले बंगाल विधानसभा के चुनाव में पहली बार वामपंथी नेताओं को जीत मिली थी। वर्ष 1946 के चुनाव में ज्योति बसु, रतनलाल ब्राrाण और रूपनारायण रॉय जीते थे। स्वतंत्रता के बाद पहला विधानसभा चुनाव 1951 में हुआ तो उसमें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) को 28 और फारवर्ड ब्लाक के दो समूहों को 13 सीटों पर जीत मिली। फिर वामदलों ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और बंगाल में धीरे-धीरे उनकी ताकत बढ़ती गई। वर्ष 1964 में भाकपा टूटकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) माकपा बनी। हालांकि, वामपंथी दलों की सीटों की संख्या में कोई कमी नहीं आई। इसमें 1972 का चुनाव अपवाद जरूर है, क्योंकि उस चुनाव में निष्पक्षता को लेकर कई सवाल उठे थे।
आजादी के बाद बंगाल में लंबे समय तक कांग्रेस ने शासन किया। बीच में संयुक्त मोर्चा की दो सरकारों के संक्षिप्त कार्यकाल को छोड़ दें तो कांग्रेस यहां आजादी के बाद से 1977 तक सत्ता में रही। परंतु जैसे-जैसे वामपंथी दलों की ताकत बढ़ती गई, वैसे-वैसे कांग्रेस कमजोर होती गई और इस बार तो बिल्कुल खत्म हो गई। पर वामपंथी दलों का पतन अचानक ही माना जाएगा। वर्ष 1977 से लेकर अप्रैल, 2011 तक करीब 34 वर्षो तक एकछत्र राज करने वाले वामपंथी दलों का सत्ता से बाहर होने के महज एक दशक में ऐसा हश्र होगा, यह शायद ही किसी ने सोचा होगा। बंगाल विधानसभा की इस बार तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी है और ‘लाल सलाम’ के नारे ‘भारत माता की जय’, ‘जय श्रीराम’ और ‘जय बांग्ला’ में तब्दील हो चुके हैं।
वर्ष 2006 के विधानसभा चुनाव में वाममोर्चा को 235 सीटों वाली बड़ी जीत मिली थी। उनमें से सिर्फ चार बड़े दलों माकपा, भाकपा, आरएसपी और फारवर्ड ब्लाक को ही 227 सीटें मिली थीं। लेकिन इसके पांच साल बाद 2011 में वाममोर्चा 62 सीटों पर सिमट गया। चार बड़े सहयोगी दलों के खाते में महज 60 सीटें ही आईं। वर्ष 2016 के विधानसभा चुनाव में वामपंथी दल सिर्फ 32 सीटें ही जीत सके और डेढ़ दशक पहले तक ‘लाल दुर्ग’ कहे जाने वाले बंगाल में 2021 के विधानसभा चुनाव में वामपंथी दल शून्य पर आ गए। खुद को वाम विरोधी नेता के रूप में स्थापित करने के बाद ममता बनर्जी ने कहा था, ‘मैं नहीं चाहती कि कोई शून्य हो जाए। उन्होंने (वाम) खुद को भाजपा की ओर इतना धकेल दिया कि वे खुद एक साइनबोर्ड हो गए। भाजपा के बदले उन्हें (वाम) सीटें मिली होती तो कुछ बेहतर होता।’ दूसरी तरफ पुरजोर कोशिश के बावजूद इस बार भाजपा सत्ता में नहीं आ सकी, लेकिन 34 वर्षो तक शासन करने वाले वामपंथी दलों का सत्ता से बाहर होने के महज 10 साल के भीतर यह हाल कल्पना से परे है। यह शून्य उन सभी दलों व नेताओं के लिए एक सबक है जो चुनाव जीतने के बाद खुद को भाग्य विधाता मानने लगते हैं। ऐसे अहंकारियों का अंत ‘शून्य’ ही होता है।
[राज्य ब्यूरो प्रमुख, बंगाल]