Bengal Politics: बंगाल में अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही माकपा और कांग्रेस, दोनों के कुछ नहीं आया हाथ
आजादी के बाद 2021 पहला ऐसा वर्ष रहा है जिसमें वाम और कांग्रेस का एक भी सदस्य विधानसभा नहीं पहुंच पाया। वाम-कांग्रेस ने तो गठबंधन किया ही था अपनी स्थिति और मजबूत करने के लिए फुरफुरा शरीफ के धर्मगुरु पीरजादा अब्बास की नई पार्टी आइएसएफ से भी हाथ मिलाया था।
कोलकाता, जयकृष्ण वाजपेयी। बंगाल के लिए 2021 चुनावी साल रहा। इसी वर्ष बहुचर्चित विधानसभा चुनाव हुआ। इसके बाद राज्यसभा और विधानसभा के लिए दो-दो उपचुनाव और वर्ष के आखिर में कोलकाता नगर निगम का चुनाव हुआ। सबसे अधिक सुर्खियों में विधानसभा चुनाव रहा। सत्ता की सबसे प्रमुख दावेदार के रूप में उभरी भाजपा को झटका देते हुए मुख्यमंत्री व तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी तीसरी बार सत्ता पर काबिज हो गईं। परंतु सबसे हैरत की बात यह रही कि वाम-कांग्रेस गठबंधन का सूपड़ा ही साफ नहीं हुआ, बल्कि सात दशकों के इतिहास में पहली बार उनका खाता तक नहीं खुला। ये वही दल हैं, जिन्होंने बंगाल पर कुल मिलाकर 64 वर्षो तक राज किया था। वर्ष 2021 में वाम-कांग्रेस को बंगाल की जनता ने ‘शून्य’ की ऐसी टीस दी, जिसे वे शायद ही कभी भूल पाएंगे।
आजादी के बाद 2021 पहला ऐसा वर्ष रहा है, जिसमें वाम और कांग्रेस का एक भी सदस्य विधानसभा नहीं पहुंच पाया। वाम-कांग्रेस ने तो गठबंधन किया ही था, अपनी स्थिति और मजबूत करने के लिए फुरफुरा शरीफ के धर्मगुरु पीरजादा अब्बास की नई पार्टी इंडियन सेक्युलर फ्रंट (आइएसएफ) से भी हाथ मिलाया था। मुकाबला त्रिकोणीय करने की उम्मीद के साथ वाम-कांग्रेस और आइएसएफ संयुक्त मोर्चा के रूप में मैदान में उतरे, लेकिन मतदाताओं ने उन्हें पूरी तरह से नकार दिया। हालांकि अभी पिछले सप्ताह संपन्न हुए कोलकाता नगर निगम के चुनाव में वाममोर्चा के वोट प्रतिशत में थोड़ा सुधार हुआ है, फिर भी उसने महज दो वार्ड ही जीते हैं। वहीं भारतीय जनता पार्टी ने तीन और कांग्रेस ने दो वार्डो में जीत दर्ज की।
वैसे तो वामपंथियों की सियासी जमीन 2008 के पंचायत चुनाव से ही खिसकने लगी थी और 2011 में 34 वर्षो का शासन ही खत्म हो गया। इसके बाद से कभी भी ऐसा नहीं लगा कि खोई हुई जमीन वामपंथियों को वापस मिल रही है। ऐसा ही कुछ कांग्रेस के साथ भी है। वर्ष 2021 में तो और भी स्पष्ट हो गया कि बंगाल की सियासत में वाम और कांग्रेस दोनों ही अप्रांसगिक हो चुके हैं और अब केवल अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं।
वामपंथी राजनीति के राष्ट्रीय विमर्श से बाहर होने की बात काफी पहले से कही जा रही थी, लेकिन बंगाल विधानसभा चुनाव में लगातार तीसरी हार और वोटों में जिस तरह की गिरावट दर्ज हुई, उसने इस बात पर पक्की मुहर लगा दी है। कहने को उसने केरल में जीत हासिल की है और कामरेड यह दावा जरूर कर रहे हैं कि अब भी उनकी जड़ें बची हुई हैं। परंतु राष्ट्रीय राजनीति में वाम का दखल बंगाल के भरोसे ही था।
वर्ष 2019 और 2021 में बंगाल में पूरी तरह से शून्य हो जाने के बाद अब लगता है कि वामपंथी पार्टियां केवल नाम के लिए ही रह गई हैं। बंगाल में कांग्रेस का भी हाल माकपा नेतृत्व वाले वाममोर्चा से अलग नहीं है। पीछे मुड़कर देखें तो 1990 से लेकर 2010 तक राष्ट्रीय राजनीति पर वाम दलों का गहरा असर था।
वीपी सिंह के नेतृत्व वाले जनता दल के विघटन के बाद से उसे तीसरी धारा की केंद्रीय ताकत के रूप में देखा जाता था। क्षेत्रीय पार्टियों का जमावड़ा उसी के इर्द-गिर्द हुआ करता था और कुछ वर्षो तक उसकी स्थिति किंग मेकर जैसी बनी हुई थी। कई सियासी क्षत्रपों ने वामपंथियों को साधने की कोशिश में कामरेड और पोलित ब्यूरो जैसी शब्दावली भी अपना ली थी। अपना घोर कांग्रेस विरोधी रवैया छोड़कर वाम ने 2004 में कांग्रेस को समर्थन करने का फैसला किया।
हालांकि 2008 में उसने भारत-अमेरिका परमाणु करार के मुद्दे पर मनमोहन सरकार से समर्थन वापस ले लिया, जिसके बाद से अपनी गिरावट को रोक पाना उसके बूते से बाहर होता गया।
इस बार के बंगाल विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और वामपंथी एक-दूसरे के लिए मजबूरी थे, इसीलिए चुनाव से बहुत पहले गठबंधन हो गया था। इसकी वजह भी थी कि दोनों ही दलों का संगठन जिले व ब्लाक स्तर पर लगभग खत्म हो चुका है। इसीलिए एक-दूसरे के सहारे लड़ाई लड़ रहे थे। इसके बावजूद वे न तो जनता से सीधा संवाद बना पाए और न ही राजनीति का ऐसा कोई मुहावरा ढूंढ पाए, जिसे लोगों के गले उतारा जा सके। राज्य में जारी सामाजिक-आर्थिक बदलावों के साथ तालमेल बिठाने का काम भी गठबंधन नहीं कर पाया।
वर्ष 2021 में पहली बार माकपाइयों को राष्ट्रवाद की याद आई है। जो मार्क्स और लेनिन को ही अपना सबकुछ मानते थे, सर्वहारा और सामाजिक दर्शन का हर समय नगाड़ा बजाते रहते थे, टुकड़े-टुकड़े गैंग के समर्थन में खड़े हो जाते थे, उन्हीं वामपंथियों को इस वर्ष सद्बुद्धि आई। माकपाइयों ने आजादी के 75वें वर्ष में पहली बार अपने पार्टी कार्यालयों में स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्रीय ध्वज फहराया। इसे लोग 21 में मिली टीस के असर के साथ मजबूरी भी कह रहे हैं।