Bengal Politics: सत्ता बदली, नहीं बदली दशकों से हिंसा के हथियार से सियासी वर्चस्व की लड़ाई
भाजपा की ओर से वही आरोप तृणमूल पर लग रहा है जो आरोप 2011 से पहले वामपंथी हिंसा में तपकर निकलीं ममता कामरेडों पर लगाती थी। दरअसल बंगाल में हिंसा की सबसे बड़ी वजह राजनीति से कमाई है। ऐसे में भला आखिर कैसे बदले सियासी रक्त चरित्र?
जयकृष्ण वाजपेयी। राजनीति में जुबानी जंग आम है। हर दिन नेता एक-दूसरे पर तीखे शब्द बाण चलाते रहते हैं, लेकिन बंगाल में सिर्फ जुबानी जंग नहीं होती। यहां दशकों से हिंसा के हथियार से सियासी वर्चस्व की लड़ाई लड़ी जा रही है। जो भी पार्टी सत्ता में होती है, उस पर हिंसा और हत्या के जरिये वर्चस्व कायम रखने के आरोप लगते हैं। एक मशहूर बांग्ला कहावत है- जेई जाए लंका, सेई होए रावण यानी जो भी लंका जाता है, वही रावण बन जाता है।
इस कहावत की वजह स्वतंत्रता के बाद का बंगाल का सियासी इतिहास है, जहां राजनीतिक हिंसा में हजारों जानें जा चुकी हैं। खूनी रवायत बंगाल की सियासत का वो अक्स है, जो 1957 के दूसरे विधानसभा चुनाव के बाद से लेकर आज तक लगभग हर दो-चार दिनों पर किसी न किसी रूप में सामने आती ही रहती है। इसकी वजह यह है कि सूबे की सत्ता पर बैठने वालों के चेहरे तो बदले, पर सियासी रक्त चरित्र नहीं बदला। इसका प्रमाण वाममोर्चा, कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और भाजपा नेताओं के वक्त-वक्त पर दिए बयान हैं। ताजा उदाहरण दो दिन पहले पश्चिम बर्धमान के बाराबनी में हुई घटना है, जहां भाजपा की रैली पर बम व गोलियां चलीं, जिसमें पांच लोग घायल हो गए। इसके बाद उसी रात को कोलकाता से सटे राजारहाट-न्यूटाउन में पोस्टर लगाने के दौरान भाजपा कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया गया। उत्तर 24 परगना में भाजपा कार्यालय पर बम फेके गए। इन हमलों का आरोप तृणमूल पर लगा है। दूसरी तरफ तृणमूल ने हमले के आरोपों को बेबुनियाद और भाजपा की अंदरूनी लड़ाई बता कर पल्ला झाड़ लिया।
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह पिछले माह जब कोलकाता आए थे तो उन्होंने कहा था कि अब तक बंगाल में सौ से अधिक भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी हिंसा की बातें सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं। हालांकि मुख्यमंत्री व तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी बंगाल में सियासी हिंसा के आरोपों को बेबुनियाद बताकर खारिज करती रही हैं। परंतु ममता बनर्जी 34 वर्षो के वामपंथी शासन में बंगाल में करीब 50 हजार सियासी हत्याओं का आरोप लगाती रहती हैं और कामरेड आरोपों को नकारते रहते हैं। अतीत में झांकें तो 1959 के खाद्य आंदोलन के दौरान 80 लोगों की जानें गई थीं, जिसे वामपंथियों ने कांग्रेस की विपक्ष को रौंदकर वर्चस्व कायम करने की कार्रवाई करार दिया था। 1967 में सत्ता के खिलाफ नक्सलबाड़ी से शुरू हुए सशस्त्र आंदोलन में सैकड़ों जानें गईं थीं।
वर्ष 1971 में जब कांग्रेस की सरकार बनी और सिद्धार्थ शंकर रॉय मुख्यमंत्री बने तो बंगाल में राजनीतिक हत्याओं का जो दौर शुरू हुआ, उसने सभी हिंसा को पीछे छोड़ दिया। कहा जाता है कि 1971 से 1977 के बीच कांग्रेस ने विपक्ष की आवाज दबाने के लिए हिंसा को हथियार बनाया था और यही हिंसा 1977 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के पतन और वाममोर्चा के उदय की वजह बनी। इसके बाद कांग्रेस का बंगाल में क्या हश्र हुआ, यह सर्वविदित है। वर्ष 1977 में भारी बहुमत से सत्ता में आने के बाद वामपंथियों ने भी हिंसा की राह को ही अपना लिया और सियासी वर्चस्व कायम रखने के लिए हत्या और हिंसा का संगठित तरीके से इस्तेमाल शुरू कर दिया।
वर्ष 1977 से 2011 तक वाममोर्चा के 34 वर्षो के शासनकाल में बंगाल की सियासी फिजा पूरी तरह से लहूलुहान रही। वर्ष 1979 में तत्कालीन ज्योति बसु सरकार की पुलिस व माकपाइयों ने बांग्लादेशी हिंदू शरणार्थियों पर निर्मम अत्याचार किए, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए थे। इसके बाद अप्रैल, 1982 में कोलकाता के बिजन सेतु के निकट 17 आनंदमाíगयों को जिंदा जला दिया गया और आरोप माकपाइयों पर लगा। वर्ष 2007 से 2011 तक सियासी हिंसा व हत्याओं में बंगाल पूरे देश में नंबर एक पर था। वर्ष 2006-07 में नंदीग्राम में 14 और सिंगुर में कई हत्याएं हुईं। यह दौर वामपंथी शासन के अंत और तृणमूल के सत्ता के शिखर पर पहुंचने का था। इसके बाद 2011 में ममता सरकार सत्ता में आई, लेकिन सियासी हिंसा और हत्याओं का दौर जारी रहा।
2013 के पंचायत चुनाव के दौरान भीषण हिंसा हुई थी। ममता बनर्ती ने वर्ष 2011 के विधानसभा चुनाव में नारा दिया था- बदला नहीं, बदल चाहिए, लेकिन हुआ उसके विपरीत। वाम शासनकाल में हिंसा के जरिए चुनाव जिताने वाले तृणमूल में शामिल हो गए और हिंसक सियासत का दौर जारी रहा। इसी हिंसा की वजह से कांग्रेस के बाद वामपंथी भी हाशिए पर हैं।
[स्टेट ब्यूरो प्रमुख, बंगाल]