सुशील दीक्षित ‘विचित्र’। Bengal Chunav पांच राज्यों में चुनावों की घोषणा होने के साथ ही पिछले कुछ वर्षो की तरह एक बार फिर चुनाव आयोग को कठघरे में खड़ा किया जाने लगा है। ममता बनर्जी के साथ कुछ विपक्षी दल भी मतदान की तारीखों पर अंगुलियां उठा रहे हैं। यह और कुछ नहीं संवैधानिक संस्थाओं पर प्रहार की वही पुरानी परिपाटी है जो पिछले कुछ वर्षो से इस या उस बहाने बराबर चल रही है। बंगाल में चुनाव आयोग ने मतदान के लिए जो व्यवस्था की है लगभग वैसी ही व्यवस्था पिछले दस वर्षो के दौरान हुए दो चुनावों में भी रही। तब ममता बनर्जी को कोई एतराज नहीं था।
2011 में हुए चुनाव छह चरणों में कराए गए थे। 2016 में एक चरण बढ़ा कर सात कर दिए गए थे। इन दोनों बार ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने जीत दर्ज कराई। इस बार परिस्थितियां 2016 से अधिक जटिल हैं। दुनिया को रविंद्र संगीत देने वाले बंगाल के संगीत चरित्र को राजनीति ने विद्वेष में बदल डाला है। विरोधी के प्रति असहिष्णुता का वहां सैलाब आ गया है।
मतदान की तारीखों पर सवाल उठाने वाले तर्क दे रहे हैं कि तमिलनाडु में 234 सीटों पर एक ही चरण में मतदान है, जबकि बंगाल में 294 सीटों पर आठ चरणों में चुनाव कराए जाएंगे। केवल साठ सीटें अधिक हैं तो इतना लंबा आयोजन क्यों? देखने में यह सवाल अनुचित नहीं लगता, लेकिन सवाल करने वाले दोनों राज्यों की वर्तमान परिस्थितियों को देखने, मानने या समझने से इन्कार कर रहे हैं। तमिलनाडु में हालात सामान्य हैं, लेकिन बंगाल में शांतिपूर्ण चुनाव कराना चुनाव आयोग के लिए चुनौती भरा काम है।
बंगाल में 2016 में संवेदनशील क्षेत्रों की संख्या 725 थी। इस बार यह संख्या एक हजार से ऊपर हो चुकी है। वहां सुरक्षा बलों की आठ सौ कंपनियां अधिक लगाई जाएंगी। 2016 के चुनावों के दौरान आयोग के अधिकारियों ने कहा था कि वहां हालात बिहार से भी अधिक खराब हैं। इस बार हालात पहले से भी बदतर हैं। लिहाजा तमिलनाडु से बंगाल की तुलना बेमानी है।
तमिलनाडु में चुनाव आयोग के सामने कोई बड़ी चुनौती नहीं है। सत्ता पक्ष चुनाव के लिए तैयार हो रहा है और विपक्ष अपनी शक्ति बढ़ाने की कोशिश में लगा है। दोनों पक्ष राजनीतिक दावपेंच भरपूर चल रहे हैं, लेकिन उन पर हिंसा का वैसा खौफनाक मुलम्मा नहीं चढ़ा है जैसा बंगाल की राजनीति पर चढ़ा है। बंगाल में विपक्षी पार्टयिां चुनाव आयोग से निष्पक्ष चुनाव कराने की बार-बार गुहार लगाते यदि दिख रही हैं तो इसलिए नहीं कि वह उनकी कोई राजनीतिक रणनीति है, बल्कि इसलिए कि वहां सत्ता के दुरुपयोग की नजीर बनाई जा रही है। ऐसे में विपक्षी दलों का डरना, घबराना अस्वाभाविक नहीं माना जाना चाहिए और न ही उनकी चिंता से असहमत हुआ जा सकता है।
2016 में खुद ममता बनर्जी ने बंगाल में सात चरणों में चुनाव को कम बताकर अधिक चरणों में चुनाव कराने की मांग की थी। उस समय भी उन्होंने वही आरोप लगाए थे, जो आज लगा रही हैं कि चुनाव आयोग भाजपा से मिला हुआ है। चुनाव आयोग के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि बंगाल में इस बार सुरक्षा के लिए पहले से अधिक प्रबंध किए गए हैं। आठ सौ अतिरिक्त कंपनियां लगानी पड़ी हैं। ऐसे में वहां सुरक्षा कंपनियों के मूवमेंट में भी अतिरिक्त समय लगेगा। इसलिए वहां एक अतिरिक्त चरण बढ़ाना पड़ा है।
उन्होंने यह भी कहा है कि राज्य की स्थिति को भी ध्यान में रखना पड़ा है। यह भी एक कारण है वहां अधिक चरणों में चुनाव कराने का। दरअसल पिछली बार ममता बनर्जी के सामने कोई बड़ी चुनौती नहीं थी। इस बार भाजपा उनके सामने बड़ी चुनौती बन कर उभरी है। ममता के लिए यह चिंता का विषय है। ऊपर से वे भले ही आश्वस्त दिख रही हों, लेकिन उनकी भाषाशैली अंदर की बेचैनी को बाहर आने से रोक नहीं पा रही। विपक्षी दलों को भी चाहिए कि चुनाव आयोग को कठघरे में खड़ा करने के स्थान पर स्थितियों को समङों। इससे केवल चुनाव आयोग ही निपट सकता है।
[अध्यक्ष, प्रवाह साहित्यिक संस्थान]
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