Bengal Politics: बंगाल की राजनीति में हलचल के मायने, चरम पर है सियासी हिंसा
तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और नंदीग्राम से विधायक रहे सुवेंदु अधिकारी का भाजपा में शामिल होना हैरान करने वाली खबर नहीं है। पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद ही यह लगभग तय हो गया था। फोटो लेखक अभिषेक रंजन सिंह के सौजन्य से।
अभिषेक रंजन सिंह। अक्सर कहा जाता है कि बंगाल जो आज सोचता है, देश उसके बाद सोचता है। इसलिए यह जान लें कि अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले बंगाल में वह घटित होगा, जिसकी कल्पना राजनीतिक पंडितों ने भी नहीं की होगी। फिलहाल बंगाल में राजनीतिक हिंसा चरम पर है और इसमें अभी और वृद्धि होगी।
शुरुआत दो साल पहले से करते हैं, जब साल 2018 में हुए ग्राम-पंचायतों के चुनाव में 100 से ज्यादा लोगों की हत्या हुई थी। ज्यादातर हत्याएं राज्य में विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं की हुई थी। ग्राम-पंचायतों के चुनावों में खौफ का आलम इस कदर था कि कांग्रेस, भाजपा व सीपीएम के उम्मीदवारों ने तृणमूल के उम्मीदवारों के खिलाफ पर्चा तक दाखिल नहीं किया। दक्षिण बंगाल में तो करीब 15 फीसद सीटों पर तृणमूल प्रत्याशी निर्विरोध जीत गए।
वर्ष 2014 के लोकसभा और 2016 के विधानसभा चुनावों के मुकाबले 2019 के संसदीय चुनाव में बंगाल में काफी हद तक मतदाता भयमुक्त रहे। केंद्रीय अर्धसैनिक बलों ने उपद्रवियों के मंसूबों को नाकाम कर दिया। वहीं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का आरोप था कि केंद्रीय सुरक्षाबलों के जवान उनके समर्थकों को डराते-धमकाते हैं। पिछले साल लोकसभा चुनाव के दौरान पूर्वी मिदनापुर स्थित नंदीग्राम जाने का अवसर मिला था। वहां सियासी रंजिश का आलम यह था कि पूरे अंचल में सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के अलावा दूसरे किसी भी दलों का कोई पोस्टर नहीं था। अप्रैल 2019 में बारह वर्षो के बाद नंदीग्राम में सीपीएम का दफ्तर खोला गया। लेकिन अगले दिन तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने पार्टी कार्यालय को काले झंडों से पाट दिया। बंगाल में हिंसा की जो राजनीति वामदलों ने शुरू की थी, उसी र्ढे पर तृणमूल कांग्रेस है। नंदीग्राम व सिंगुर में जिस प्रकार खौफ का माहौल है, वैसी ही दहशत कम्युनिस्ट सरकार के समय थी।
आसान नहीं हिंसा से हासिल सत्ता का संचालन : हिंसा के जरिये सत्ता प्राप्त करना शेर की सवारी जैसा है। पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट सरकार ने इस यथार्थ को भोगा है। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि वामदलों की हिंसा के खिलाफ मुहिम चलाने वाली ममता बनर्ती राजनीतिक हिंसा को नियंत्रित करने के बजाय उसे शह दे रही हैं। पश्चिम बंगाल में हिंसक राजनीति का दौर पिछली सदी के सातवें-आठवें दशक में ही शुरू हो गया था। लेकिन तृणमूल कांग्रेस की सरकार में स्थिति अधिक भयावह हो गई है।
यहां भाजपा को उन लोगों का समर्थन हासिल हो रहा है, जो कभी सीपीएम व तृणमूल कांग्रेस के परंपरागत मतदाता थे। साल 2011 के विधानसभा चुनाव में मुख्य मुकाबला तृणमूल कांग्रेस और सीपीएम के बीच था। साल 2016 के विधानसभा चुनाव में राज्य की कुल 294 सीटों में से तृणमूल ने 211 सीटें जीतीं। टीएमसी को 44.9 फीसद वोट मिले, वहीं वामदल-कांग्रेस गठबंधन को 26.3 फीसद वोट मिले। इस चुनाव में भाजपा को महज तीन सीटों पर सफलता मिली। लेकिन 2016 के चुनाव में पार्टी को 10.1 फीसद वोट मिले जो 2011 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले 6.1 फीसद अधिक था। हालांकि वर्ष 2014 के विधानसभा उपचुनाव में भाजपा बशीरहाट दक्षिण से जीतने में कामयाब हुई थी।
साल 2016 का विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था। लेकिन साल 2019 के लोकसभा चुनाव में बंगाल में भाजपा को सीटें ही नहीं, बल्कि मत प्रतिशत का भी फायदा हुआ। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 39 फीसद मत मिले। राज्य में 18 संसदीय सीटें जीतकर भाजपा ने तमाम राजनीतिक विश्लेषकों को हैरान कर दिया। भाजपा को मिली इन सीटों का विधानसभा क्षेत्रवार अध्ययन करें तो प्रदेश की कुल 294 सीटों में से भाजपा 122 सीटों पर पहले स्थान पर रही, जबकि 60 सीटों पर वह दूसरे व तीसरे स्थान पर रही। लोकसभा चुनाव के बाद बंगाल में काफी हद तक राजनीतिक बदलाव देखने को मिले हैं। केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए नागरिकता संशोधन कानून को लेकर भले ही देश में विरोध प्रदर्शन हुए हों, लेकिन बंगाल में ये दोनों विधेयक भाजपा के लिए कामधेनु गाय की तरह साबित होने वाले हैं।
दरअसल बांग्लादेश के बारिसाल, चटगांव व पटुआखाली जिलों से मतुआ हिंदू समाज के लाखों लोग बंटवारे के समय पश्चिम बंगाल आए। इनकी अनुमानित संख्या 60 लाख के करीब है। राज्य के उत्तर चौबीस परगना, दक्षिण चौबीस परगना और नदिया जिले में मतुआ समाज की बहुलता है। प्रदेश की करीब 40 विधानसभा क्षेत्रों में जीत-हार का फैसला इस समाज पर निर्भर है। नागरिकता (संशोधन) अधिनियम पारित होने के कारण मतुआ समाज का मत पूरी तरह भाजपा को मिलने वाला है।
भारतीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) भी बंगाल की चुनावी राजनीति में भाजपा के लिए फायदेमंद है। गत लोकसभा चुनाव के नतीजे इसके गवाह रहे हैं। उत्तर बंगाल के ज्यादातर जिले बांग्लादेश की सीमा से सटे हैं। वहां भाजपा को जबरदस्त कामयाबी मिली और तृणमूल कांग्रेस व बाकी दलों का सफाया हो गया। इसका आशय स्पष्ट है कि भाजपा बंगाल के लोगों खासकर नौजवानों को यह समझाने में सफल रही है कि अगर तृणमूल कांग्रेस या वामदल सत्ता में रहेंगे तो अवैध घुसपैठियों की वजह से पश्चिम बंगाल को बांग्लादेश बनने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।
बदलाव की ओर राज्य : नक्सलबाड़ी आंदोलन व आपातकाल से पहले पश्चिम बंगाल में कांग्रेस का एकछत्र राज था। साल 1977 में पहली बार कम्युनिस्टों की सरकार बनी, जो 34 वर्षो तक सत्ता में रही। इस दौरान कांग्रेस राजनीतिक रूप से कमजोर होती चली गई। 1998 में कांग्रेस से अलग होकर ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस बनाई। उस वक्त किसी ने सोचा नहीं था कि युवा कांग्रेस की यह नेत्री महज 13 साल में पश्चिम बंगाल से वामदलों का सफाया कर देगी। लेकिन तमाम हथकंडे अपनाते हुए ममता ने वामपंथियों को सत्ता से बाहर कर दिया। आज पश्चिम बंगाल की राजनीति का ठीक वैसा ही चरित्र सामने है। फर्क सिर्फ इतना है कि उस वक्त सीपीएम सत्ता में थी और टीएमसी विपक्ष में।
आज टीएमसी सत्ता में है और भाजपा तेजी से उभरता एक विपक्ष। बंगाल की राजनीतिक हिंसा का पैटर्न ठीक उसी प्रकार है जो एक दशक पूर्व था। अंतर इतना है कि हमलावर वहीं हैं, लेकिन उनकी पार्टी बदल गई है। नंदीग्राम और सिंगुर में किसानों की जमीन का अधिग्रहण और उसके विरोध में हुई हिंसा तो वामपंथ की ताबूत का आखिरी कील साबित हुआ। वहीं किसानों के इस आंदोलन की नायिका बनकर उभरीं ममता बनर्जी। 2011 में बंगाल में विधानसभा के चुनाव हुए जिसमें तृणमूल कांग्रेस प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई। कभी वामदलों को बंगाल के बुद्धिजीवियों का काफी समर्थन हासिल था। लेकिन नंदीग्राम और सिंगुर में किसान विरोधी नीतियों की वजह से वामदलों ने राज्य के बुद्धिजीवियों का समर्थन खो दिया।
[स्वतंत्र पत्रकार]