इंसान का सबसे बड़ा शत्रु स्वार्थ
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संस्कारशाला
स्वार्थ शब्द पर विचार किया जाए तो हमें पता चलता है कि यह दो शब्दों से बना है जिसमें 'स्व' का अर्थ 'अपना' और अर्थ का मतलब 'हित' होता है। अर्थात स्वयं का हित ही स्वार्थ है। आज के आधुनिक युग में हम देखते हैं कि हर रिश्ते की बुनियाद स्वार्थ पर ही टिकी हुई है। संसार में सभी लोग किसी न किसी तरह स्वार्थी हैं। इसलिए तुलसी दास जी ने रामचरितमानस में लिखा था कि 'सुर नर मुनि सब कै यह रीति.. स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति।' इसका भावार्थ यह है कि देवता, मुनि व मनुष्य सबकी यह रीति (आचरण) है कि स्वार्थ के लिए ही सब प्रीति (प्रेम) करते हैं। स्वार्थ का केवल एक ही लक्ष्य होता है किसी भी तरह से अपने हित को साधना। अपने लक्ष्य की पूíत करना। जब लक्ष्य पूरा हो जाता है तो व्यक्ति व्यक्ति का साथ छोड़ देता है। आज कल इंसान हर रिश्ते में अपना स्वार्थ ही देखता है। स्वार्थ में लिप्त व्यक्ति स्वयं अपने में सीमित होता है। वह न केवल दूसरों को दुख पहुंचाता है बल्कि स्वयं भी दूसरों की नजर में गिर कर अपने सम्मान को भी हानि पहुंचाता है। इसके विपरीत यदि व्यक्ति स्वार्थ की भावना त्याग कर लोगों की भलाई करता है तो उसे सुख व आनंद की प्राप्ति होती है। बचपन में मा मुझे एक कहानी सुनाती थी। मा कहती थी कि मनुष्य बहुत स्वार्थी होता है। केवल स्वार्थ पूरा करने में ही लगा रहता है। कहानी यह थी कि एक बागान में एक विशाल आम का पेड़ था। वहा एक छोटा सा बालक खेलने जाता था। वह पेड़ पर चढ़ जाता और आम तोड़ कर खाता। पेड़ पर विश्राम करता। समय के साथ बालक बड़ा हो गया। उसने पेड़ के साथ खेलना छोड़ दिया। काफी दिनों बाद वह लड़का पेड़ के पास गया तो वह दुखी था। पेड़ ने कहा, आओ मेरे साथ खेलो। तब, लड़के ने कहा कि मुझे खेलने के लिए खिलौने चाहिए पर मेरे पास पैसे नहीं हैं। पेड़ ने कहा, तुम मेरे सब आम तोड़ लो और बेच दो। तुम्हें पैसे मिल जाएंगे। लड़के ने खुशी-खुशी सारा फल तोड़ लिया और चलता बना।
इससे पता चलता है कि आदमी कितना स्वार्थी होता है। जिस आम के पेड़ पर चढ़ कर व खेला, उसका फल खाया, अंत में उसी पेड़ को काट डाला। इतना स्वार्थी कि पेड़ काटते समय उसे पेड़ पर जरा भी दया नहीं आई। स्वार्थ से दूर रहने के लिए ज्ञान व दूरदर्शीता होनी चाहिए। सेवा करने से न हमें आत्म संतोष मिलेगा बल्कि यश एवं प्रतिष्ठा भी मिलेगी। इंसान का सबसे बड़ा शत्रु उसका स्वार्थ है। यदि वह अपने हृदय से स्वार्थ की भावना को छोड़ दे तो काफी हद तक दुनिया में बदलाव आ जाएगा। तब, न केवल समाज बल्कि सारी सृष्टि बेहतर हो जाएगी। नकारात्मक की जगह सकारात्मक भावना का विस्तार होगा। यदि देखा जाए तो स्वार्थ शब्द अपने आप में बुरा नहीं है। परंतु, स्वार्थी मनुष्य अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए अनेक बार दूसरों के हित को हानि पहुंचा कर अपना हित अनुचित साधनों से व अधर्म पूर्वक साधता है। उदाहरण स्वरूप देख सकते हैं कि महाभारत में धृतराष्ट्र ने अपने स्वार्थ के लिए कौरव वंश का नाश कर दिया। अंत में यह कहा जा सकता है कि अपने स्वार्थ हित की आवश्यकता की चिंता न करते हुए परमार्थ प्रयोजन के लिए अधिक से अधिक प्रयास करते रहना चाहिए प्रयास करते रहना चाहिए।
श्याम सुंदर शर्मा
प्रधानाचार्य
श्री कृष्ण प्रणामी विद्या निकेतन
सिलीगुड़ी