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कालापानी विवाद को बेवजह हवा दे रहा है नेपाल-अशोक चौरसिया

-चीन के इशारे पर हो रहा है पूरा काम -भारत के साथ रिश्ते बिगाड़ने की साजिश -दार्जिलिंग

By JagranEdited By: Published: Tue, 10 Dec 2019 07:33 PM (IST)Updated: Tue, 10 Dec 2019 07:33 PM (IST)
कालापानी विवाद को बेवजह हवा दे रहा है नेपाल-अशोक चौरसिया
कालापानी विवाद को बेवजह हवा दे रहा है नेपाल-अशोक चौरसिया

-चीन के इशारे पर हो रहा है पूरा काम

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-भारत के साथ रिश्ते बिगाड़ने की साजिश

-दार्जिलिंग जिले पर पड़ेगा भारी असर

जागरण विशेष .

-कहा, आर्थिक नुकसान से घबराकर भारत के साथ तनाव फैलाने में जुटा

-नेपाली सांस्कृतिक परिषद बताएगा दोनों देश की मधुर संबंध की बातें अशोक झा, सिलीगुड़ी : नेपाल और भारत के बीच विवाद उत्पन्न कराने की कोशिश में कुछ शक्तियां लगी हुई है। इस बात को नेपाल के लोगों को समझना होगा। दोनों देशों के बीच किसी भी विवाद का असर दार्जिंिलंग जिले के 100 किलोमीटर क्षेत्र पर भी पड़ सकता है। यहां के लोगों का नेपाल से बेटी -रोटी का संबंध है। ऐसे लोग भारत-नेपाल के बीच सन 1950 की संधि को भी तुड़वाने में लगे हैं। इस बात की जानकारी नेपाल और सीमांत क्षेत्रों के लोगों को नेपाली सांस्कृतिक परिषद की ओर से दी जाएगी। यह कहना है कि नेपाली सांस्कृतिक परिषद के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक चौरसिया का। दैनिक जागरण से विशेष बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि कालापानी का विवाद उठा कर नेपाल यही कर रहा है। तथ्य यह है कि कालापानी भारत का क्षेत्र है, वहा अरसे से भारतीय सुरक्षा बल तैनात हैं। हाल में नेपाल इसलिए भड़का है कि भारत ने 31 अक्टूबर को जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को नया केंद्र शासित प्रदेश बनाने के साथ ही देश का नया नक्शा जारी किया। इसमें कालापानी को भारतीय क्षेत्र में दिखाया गया है। कालापानी पर नेपाल की धमकी ने दोनों देशों के बीच रिश्तों में आ रहे बदलाव का बड़ा संकेत दिया है। वहां के लोगों को बताया जा रहा है कि भारत ने कालापानी क्षेत्र पर कब्जा कर रखा है। जबकि तथ्य बताते हैं कि पैंतीस वर्ग किलोमीटर का यह त्रिकोणीय इलाका उत्तराखंड के पिथौरागढ़ में आता है और इसकी सीमाएं चीन और नेपाल से सटी हैं। यह इलाका पिछले दो सौ साल से भी ज्यादा समय से भारत के अधिकार क्षेत्र में है। सन 1816 में गोरखाओं और अंग्रेजों के बीच हुई संधि में इसे भारत को सौंप दिया गया था। 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद से ही कालापानी में भारत-तिब्बत सीमा पुलिस और सशस्त्र सीमा बल की चौकिया हैं। नेपाल के किसी भी पूर्व शासक ने इसे कभी विवाद का मुद्दा नहीं बनाया। ऐसे में कालापानी कैसे नेपाल का हिस्सा हो गया। नेपाल के प्रधान मंत्री ओली के पास कोई अकाट्य तर्क नहीं हैं।

कालापानी विवाद मूल रूप से नेपाल की वामपंथी सत्ता की उपज है। यह किसी से छिपा नहीं है। 1998 में नेपाल माओवादी, मा‌र्क्सवादी, लेनिनवादी के समर्थकों ने इस क्षेत्र पर अवैध कब्जा करने की कोशिश की थी। कालापानी को लेकर नेपाल ने जिस तरह की कूटनीति दिखाई है, उससे यही लगता है कि इसके पीछे चीन का हाथ है। वरना नेपाल इस तरह से आंखें दिखाने की हिम्मत नहीं करता। चीन भले भारत से मधुर रिश्तों का दावा करता हो, लेकिन उसकी हर चाल भारत को घेरने की होती है। इससे पहले डोकलाम विवाद खड़ा करके चीन ने भूटान पर भारत से दूरी बनाने का दबाव बनाया था। भूटान ने समझदारी दिखाई और सदियों पुराने रिश्तों को देखते हुए भारत के साथ खड़ा रहा। उस नाकामी के बाद चीन ने अब नेपाल पर डोरे डालना शुरू किया है और कालापानी को विवाद का मुद्दा बनाने की रणनीति बनाई है। भारत हमेशा से हर मामले में नेपाल का साथ देता आया है, यह नेपाल की सत्ता को नहीं भूलना चाहिए। दूसरों के इशारे पर इस तरह के विवाद सिर्फ अशाति को ही जन्म देंगे। इसको लेकर जल्द ही नेपाली सांस्कृतिक परिषद वहां के लोगों के साथ संवाद कर स्थिति को स्पष्ट करने की कोशिश करेगा।


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