लिम्बू -तामांग के लिए सीट आरक्षित नहीं करने के मामले में सरकार दोषी : भाजपा
लोकसभा चुनाव के पहले सिक्किम में सत्ताधारी पार्टी सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट व भाजपा के बीच दूरी बढ़ती जा रही है। भाजपा प्रदेश अध्यक्ष ने लिंबू-तामांग जनजाति के बहाने सरकार को घेरा।
By Rajesh PatelEdited By: Published: Wed, 20 Feb 2019 12:39 PM (IST)Updated: Wed, 20 Feb 2019 12:39 PM (IST)
गंगटोक [जागरण संवाददाता]। भाजपा के सिक्किम प्रदेश अध्यक्ष डीबी चौहान ने कहा कि अनुसूचित जनजाति लिम्बु-तमांग को 2006 में ही सीट आरक्षण करने का पूरा अवसर था। सीट आरक्षण सुनिश्चित नहीं कर पाने में मुख्यमंत्री पवन चामलिंग समेत उनके मंत्रियों के साथ पीएस गोले व आरबी सुब्बा बराबर के दोषी हैं।
पत्रकारों से बातचीत करते हुए चौहान ने कहा कि वर्ष 2002 में लिम्बु-तमांग समुदाय को संसद में अनुसूचित जनजाति की मान्यता मिली थी। इसके बाद आठ जनवरी 2003 को इसके लिए बाकायदा अध्यादेश जारी हुआ। फिर संविधान की धारा 332 के तहत अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल किया गया। इसके बाद 2006 में क्षेत्र का सीमांकन हुआ। इस दौरान लिम्बु-तमांग जनजाति समुदाय के लिए सीटों का आरक्षण तय किया जा सकता था, लेकिन एसडीएफ सरकार ने उस समय आरक्षण नहीं दिया।
दूसरी ओर राज्य सरकार ने बीके राय बर्मन कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर 40 सीट बढऩे के बाद ही पांच सीट लिम्बु-तमांग को आरक्षित करने के प्रस्ताव को 2008 में केंद्र सरकार के पास भेज दिया। इसी वजह से आरक्षण प्रक्रिया पूरी तरह लंबित हो गई। इसके बाद भाजपा के पूर्व अध्यक्ष हरे राम प्रधान ने सीट आरक्षण करने की मांग के साथ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। 17 बार इसकी सुनवाई हुई। इस बीच सीट आरक्षण के पक्ष में राज्य सरकार लगातार अपना पक्ष रखती रही।
अंत में सुप्रीम कोर्ट ने सीट आरक्षण सुनिश्चित करने के लिए फैसला दिया। इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में विगत 2006 में उक्त समुदायों को सीट आरक्षण किया जा सकता था। लेकिन मुख्यमंत्री पवन चामलिंग ने ऐसा निर्देश नहीं दिया। दूसरी ओर चामलिंग के दो अन्य मंत्री पीएस गोले व आरबी सुब्बा भी शामिल थे, क्योंकि उस समय वे दोनों मौन रहे। जबकि दोनों मंत्री क्षेत्र सीमांकन के लिए सुनवाई के दौरान भी मौन रहे। सीमांकन कमेटी में दोनों सदस्यों मौजूद थे। इस तरह इस ऐतिहासिक गलतियों के दोषी चामलिंग, गोले व सुब्बा हैं।
पत्रकारों से बातचीत करते हुए चौहान ने कहा कि वर्ष 2002 में लिम्बु-तमांग समुदाय को संसद में अनुसूचित जनजाति की मान्यता मिली थी। इसके बाद आठ जनवरी 2003 को इसके लिए बाकायदा अध्यादेश जारी हुआ। फिर संविधान की धारा 332 के तहत अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल किया गया। इसके बाद 2006 में क्षेत्र का सीमांकन हुआ। इस दौरान लिम्बु-तमांग जनजाति समुदाय के लिए सीटों का आरक्षण तय किया जा सकता था, लेकिन एसडीएफ सरकार ने उस समय आरक्षण नहीं दिया।
दूसरी ओर राज्य सरकार ने बीके राय बर्मन कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर 40 सीट बढऩे के बाद ही पांच सीट लिम्बु-तमांग को आरक्षित करने के प्रस्ताव को 2008 में केंद्र सरकार के पास भेज दिया। इसी वजह से आरक्षण प्रक्रिया पूरी तरह लंबित हो गई। इसके बाद भाजपा के पूर्व अध्यक्ष हरे राम प्रधान ने सीट आरक्षण करने की मांग के साथ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। 17 बार इसकी सुनवाई हुई। इस बीच सीट आरक्षण के पक्ष में राज्य सरकार लगातार अपना पक्ष रखती रही।
अंत में सुप्रीम कोर्ट ने सीट आरक्षण सुनिश्चित करने के लिए फैसला दिया। इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में विगत 2006 में उक्त समुदायों को सीट आरक्षण किया जा सकता था। लेकिन मुख्यमंत्री पवन चामलिंग ने ऐसा निर्देश नहीं दिया। दूसरी ओर चामलिंग के दो अन्य मंत्री पीएस गोले व आरबी सुब्बा भी शामिल थे, क्योंकि उस समय वे दोनों मौन रहे। जबकि दोनों मंत्री क्षेत्र सीमांकन के लिए सुनवाई के दौरान भी मौन रहे। सीमांकन कमेटी में दोनों सदस्यों मौजूद थे। इस तरह इस ऐतिहासिक गलतियों के दोषी चामलिंग, गोले व सुब्बा हैं।
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