राजनीतिक हिंसा लोकतंत्र के लिए खतरा: अशोक चौरसिया
- कहा ऐसे लोगों को समर्थन देना राज धर्म के खिलाफ -वैचारिक लड़ाई को शारीरिक लड़ाई में नहीं
- कहा ऐसे लोगों को समर्थन देना राज धर्म के खिलाफ
-वैचारिक लड़ाई को शारीरिक लड़ाई में नहीं दे बदलने
जागरण संवाददाता, सिलीगुड़ी: बंगाल विधानसभा चुनाव के बाद राजनीतिक हिंसा थमने का नाम नहीं ले रहा। यह लोकतंत्र के लिए खतरा है। हिंसा में शामिल लोगों को संरक्षण देना राज धर्म के खिलाफ माना जाना चाहिए। चुनी हुई सरकार को चाहिए कि निष्पक्ष रुप इस प्रकार की घटना में सन लिप्त लोगों के खिलाफ कराशि करा कदम उठाए। यह कहना है नेपाली संस्कृति परिषद के अंतरराष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष अशोक चौरसिया का। बंगाल के सामाजिक क्षेत्र में लंबे समय तक काम करने वाले चौरसिया का कहना है कि। लोकतात्रिक व्यवस्था वैचारिक मतभेद शारीरिक मतभेद में बदलने लगे तो क्षेत्र का बंटाधार होना तय है। ऐसा एक नहीं बल्कि कई उदाहरण है। चाहे अशात असम को ले या फिर पंजाब और जम्मू कश्मीर को। जब तक यहा राजनीतिक अशाति रही तब तक यहा का विकास थम सा गया था। उन्होंने कहा कि बंगाल को उसका वह रुतबा बख्शें जिसके लिए इसकी संस्कृति भारतीय उपमहाद्वीप का कोहेनूर समझी जाती है। अगर ममता ने राजनीतिक हिंसा करने वालों पर नकेल नहीं कसी तो उन्हें जवाब देना ही पड़ेगा। ऐसी ही संस्कृति में बना है बाग्लादेश यही वह संस्कृति है जिसने 1971 में पूर्वी पाकिस्तान को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बाग्लादेश में बदला था। बंगाल के मतदाताओं ने चुनावों में अपना जो जनादेश दिया है वह तृणमूल काग्रेस को जीत का जोश दिखाने के लिए नहीं बल्कि च्विजयच् से च्विनम्रच् होने के लिए दिया है जिससे ममता दी राज्य की जनता की सेवा और अधिक तन्मयता से कर सकें। इसके साथ ही मतदाताओं ने भाजपा को जो पराजित किया है वह उसे दंडित करने के लिए नहीं बल्कि सबक सिखाने के लिए किया है कि वह बंगाल की संस्कृति के अनुरूप अपने राजनीतिक विचारों और कार्यप्रणाली में संशोधन करे। यह पक्के तौर पर विचारों की लड़ाई थी जिसमें तृणमूल काग्रेस ने बाजी मारी है। इसमें हिंसा बीच में कहा आती है? जाहिर है जिन लोगों पर हिंसा फैलाने के आरोप लग रहे हैं उनका उद्देश्य इस वैचारिक लड़ाई को शारीरिक लड़ाई में बदलने का है जिससे राज्य में कानून- व्यवस्था की समस्या पैदा हो सके। बंगाल की धरती राजनीतिक सिद्धान्तों की प्रयोगशाला इस प्रकार रही है कि इसमें लगातार 34 साल तक कम्युनिस्ट पाíटया शासन करती रही हैं परन्तु इसके मूल में गाधीवाद की अविरल धारा ही बहती रही है जिसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि इसी धरती के महान स्वतन्त्रता सेनानी और क्रान्तिकारी योद्धा च्नेता जी सुभाषचन्द्र बोस ने ही महात्मा गाधी को पहली बार राष्ट्रपिता की उपाधि से तब विभूषित किया था जब उन्होंने अपनी आजाद हिन्द सरकार के रेडियो से भारतवासियों को सन्देश दिया था। चुनावों में हार-जीत का अर्थ हारे हुए पक्ष को डराने या धमकाने का नहीं होता है बल्कि उसका इस तथ्य के लिए सम्मान करने का होता है कि जनता का एक हिस्सा उसे भी वरीयता देता है। मगर हमें इसके साथ यह भी देखना होता है कि लोकतन्त्र के मालिक आम मतदाताओं के दिल में एक-दूसरे के प्रति हिंसा या घृणा का भाव स्थिर रूप बना कर न बैठ जाये। क्योंकि जनता के दिल में जब एक-दूसरे के प्रति हिंसा या नफरत का भाव जम जाता है तो च्गणतन्त्रच् दम तोड़ने लगता है।
मुख्यमंत्री और राज्यपाल में भी टकराव : हमारी प्रणाली में मुख्यमन्त्री और राज्यपाल की भूमिकाएं पूरी तरह स्पष्ट हैं। चुनाव से पहले की तरह राज्य में राज्यपाल व मुख्यमन्त्री के बीच किसी प्रकार की चक-चक नहीं होनी चाहिए। राजनीतिक दल एक-दूसरे पर जो भी दोषारोपण करते हैं उनसे संवैधानिक पदों पर विराजमान व्यक्तियों को दूरी बनाये रखनी चाहिए लेकिन ममता दी का यह दायित्व बनता है कि वह अपनी पार्टी पर हिंसा के लगे आरोपों पर च्दूध का दूध और पानी का पानीच् जल्दी से जल्दी से करें और सिद्ध करें कि वह तृणमूल काग्रेस की मुख्यमन्त्री नहीं बल्कि हर बंगाली की मुख्यमन्त्री हैं। क्योंकि यह भी कम विस्मयकारी नहीं है कि लोगों द्वारा उन्हें सत्ता सौंपे जाने के बाद उन्हीं की पार्टी के लोग उनकी बनने वाली सरकार को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं।