भारत-तिब्बत व्यापार का साक्षी है माघ मेला
जागरण संवाददाता, उत्तरकाशी: विश्वनाथ नगरी उत्तरकाशी के प्रसिद्ध माघ मेले (बाड़ाहाट का थौलू
जागरण संवाददाता, उत्तरकाशी: विश्वनाथ नगरी उत्तरकाशी के प्रसिद्ध माघ मेले (बाड़ाहाट का थौलू) का आगाज 14 जनवरी से हो गया है, जो 21 जनवरी तक चलेगा। इस माघ मेले का अपना धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार यह मेला महाभारत काल से जुड़ा है, जबकि ऐतिहासिक महत्व यह है कि यह मेला भारत और तिब्बत के व्यापार का साक्षी रहा है।
उत्तरकाशी में माघ मेले को बाड़ाहाट का थौलू के नाम से जाना जाता है। बाड़ाहाट का अर्थ बड़ा हाट यानी बड़ा बाजार है। बाड़ाहाट में आजादी से पहले तिब्बत के व्यापारी सेंधा नमक, ऊन, सोना, जड़ी-बूटी, भेड़, बकरी व याक बेचने आते थे। स्थानीय भाषा में तिब्बत के व्यापारियों को दोरजी कहते थे। उस दौरान यह मेला एक माह तक चलता था। जिसके बाद तिब्बत के व्यापारी यहां से धान, गेहूं आदि लेकर वापस लौटते थे। मेले में टिहरी और उत्तरकाशी के ग्रामीण अपने देवताओं के साथ आते थे और गंगास्नान के साथ-साथ खरीददारी भी करते थे। गंगाघाटी के इतिहासकार उमा रमण सेमवाल कहते हैं उत्तरकाशी के माघ मेला में राजशाही का भी नियंत्रण था। राजशाही के समय मेले में तिब्बत से आने वाले व्यापारियों का हिसाब किताब रखने के लिए अंतिम मालगुजार मुखबा निवासी पंडित विद्यादत्त सेमवाल थे। तिब्बत के व्यापारी टिहरी राज दरबार तक भी अपना सामान पहुंचाते थे। माघ मेले में 1962 तक तिब्बत के व्यापारी आते रहे। लेकिन, उसके बाद सीमाएं बंद हो गई और व्यापारियों का आना-जाना भी बंद हो गया। लेकिन, मेले का आयोजन अभी भी जारी है। उमा सेमवाल बताते हैं, मान्यताओं के अनुसार, उत्तरकाशी के पास लक्षागृह था, जो आज लक्षेश्वर के नाम से जाना जाता है। इसीलिए इस मेले में पांडव नृत्य का भी खास महत्व है। मेले में पांडवों की विशेष पूजा-अर्चना होती है।