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जंगलों के व्यावसायिक दोहन से नहीं बचेगा हिमालय

उत्तराखंड के जंगलों में लगी भीषण आग और बड़े पैमाने पर जंगलों के हो रहे व्यावसायिक दोहन को लेकर रक्षा सूत्र आंदोलन के संयोजक सुरेश भाई ने चिता व्यक्त की है।

By JagranEdited By: Published: Tue, 13 Apr 2021 03:00 AM (IST)Updated: Tue, 13 Apr 2021 03:00 AM (IST)
जंगलों के व्यावसायिक दोहन से नहीं बचेगा हिमालय
जंगलों के व्यावसायिक दोहन से नहीं बचेगा हिमालय

जागरण संवाददाता, उत्तरकाशी: उत्तराखंड के जंगलों में लगी भीषण आग और बड़े पैमाने पर जंगलों के हो रहे व्यावसायिक दोहन को लेकर रक्षा सूत्र आंदोलन के संयोजक सुरेश भाई ने चिता व्यक्त की है। सुरेश भाई ने कहा कि इससे ऊंचाई पर स्थित दुर्लभ जैव विविधता को भारी नुकसान हो रहा हैं। पेड़ों को कटर मशीन से काटने की नई तकनीकी से एक ही दिन में दर्जनों पेड़ काटकर गिराए जा रहे हैं। उन्होंने टिहरी और उत्तरकाशी जिले के जंगलों में धड़ल्ले से काटे जा रहे हरे पेड़ों की जांच की मांग को लेकर प्रमुख वन संरक्षक को पत्र लिखा है।

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रक्षा सूत्र आंदोलन के संयोजक सुरेश भाई ने कहा कि उत्तरकाशी और टिहरी की कई नदियों के सिरहाने पर वनों की बेधड़क कटाई से लगता है कि वन निगम को इसके लिए छूट मिली हुई है। क्योंकि वन विभाग हरे पेड़ों की कटाई के लिए न तो चितित हैं और न ही समय-समय पर इसकी जांच कर पा रहा है। उन्होंने कहा कि भागीरथी, जलकुर, धर्मगंगा, बालगंगा, अलकनंदा, पिडर, मंदाकिनी, यमुना, टौंस के सिरहाने व इनके जल ग्रहण क्षेत्रों में काटे जा रहे विविध प्रजातियों के हरे पेड़ों की वन विभाग को जांच करनी चाहिए। उत्तरकाशी में हरुंता, चौरंगीखाल और टिहरी में भिलंगना व बालगंगा के वन क्षेत्रों में हरे पेड़ों का कटान हो रहा है।

उन्होंने कहा कि चिता की बात यह है कि जब कोविड-19 के प्रभाव से आमजन सड़कों पर उतरकर हरे पेड़ों की कटाई का विरोध करने में समर्थ नहीं हैं तो ऐसे वक्त का लाभ वन निगम उठा रहा है। साथ ही मालामाल होने का सपना पूरा कर रहा है। इसके बदले उत्तराखंड हिमालय में बाढ़ एवं भूस्खलन के खतरे के साथ जलस्त्रोतों पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। ऊंचाई की जैव विविधता जैसे राई, कैल, मुरेंडा, देवदार, बांज, बुरांश, खर्सू, मौरू आदि के वनों को बेहद नुकसान पहुंचाया जा रहा है। जंगल क्षेत्र से सड़कों तक रातोंरात हरे पेड़ों के स्लिपर रायवाला पहुंच रहे हैं। सैकड़ों ट्रक ढुलान में लगे हुए हैं, जबकि वनों को बचाने के लिए सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए थी।


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