तिब्बत पर विजय का उत्सव है मंगशीर बग्वाल
जागरण संवाददाता उत्तरकाशी गंगा घाटी व गाजणा घाटी में मंगशीर की बग्वाल (दीपावली) मनाने
जागरण संवाददाता, उत्तरकाशी : गंगा घाटी व गाजणा घाटी में मंगशीर की बग्वाल (दीपावली) मनाने की तैयारियां चल रही है। इस बग्वाल के उत्सव का अपना अलग महत्व है। इतिहास के जानकार बताते हैं कि मंगशीर की बग्वाल गढ़वाली सेना की तिब्बत पर विजय का उत्सव है। इस बार यह उत्सव 25 व 26 नवंबर को मनाया जाएगा। उत्तरकाशी में इसके लिए खास तैयारियां भी की गई है। इस बग्वाल में गढ़ संग्रहालय और गढ़ भोज के अलावा उत्तरकाशी की पुरानी तस्वीरों की गैलरी भी लगाई जाएगी। इन सबका उद्घाटन 25 नवंबर को होगा। इस बार प्रवासी भारतीय भी इस बग्वाल में शामिल हो रहे हैं।
उत्तरकाशी में बग्वाल का कार्यक्रम आजाद मैदान में होगा। इस बार मंगशीर की बग्वाल 25-26 नवंबर को मनाई जाएगी। लेकिन इस बग्वाल के संवर्धन एवं संरक्षण के लिए कुछ स्थानीय लोगों तथा अनघा माउंटेन एसोसिएशन ने 2007 से उत्तरकाशी शहर में सामूहिक रूप से बग्वाल मनाने की शुरुआत की थी, जो लगातार बरकरार है। इस बग्वाल को दो दिवसीय उत्सव के रूप में कर दिया है। अनघा माउंटेन एसोसिएशन के सचिव राघवेंद्र उनियाल कहते हैं कि 25 नवंबर को छोटी बग्वाल का कार्यक्रम होगा। इससे पहले स्थानीय खेल प्रतियोगिताएं और शैक्षणिक प्रतियोगिताएं होंगी। जिनमें गढ़ भाषण, गढ़ निबंध, गढ़ चित्रण एवं गढ़ फैशन शो भी आयोजित होगा। उन्होंने बताया कि इस बार खेल प्रतियोगिताएं केवल लड़कियों के लिए आरक्षित हैं। इसका उद्देश्य बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, बेटी सिखाओ और बेटी खिलाओ से जोड़ा गया है।
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युद्ध जीतकर घर पहुंचने पर मनाई जाती है बग्वाल
उत्तरकाशी : गंगोत्री तीर्थ क्षेत्र ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन शोध ग्रंथ के लेखक उमा रमण सेमवाल बताते हैं कि सन 1627-28 के बीच गढ़वाल नरेश महिपत शाह के शासनकाल के दौरान जब तिब्बती लुटेरे गढ़वाल की सीमाओं के अंदर आके लूटपाट करते थे तो राजा ने माधो सिंह भंडारी व लोदी रिखोला के नेतृत्व में सेना भेजी थी। सेना विजय करते हुए दावाघाट (तिब्बत) तक पहुंच गई थी। कार्तिक मास की दीपावली के लिए माधो सिंह भंडारी घर नहीं पहुंच पाए थे। तब उन्होंने घर में संदेश पहुंचाया था कि जब वे जीतकर लौटेंगे तब ही दीपावली मनाई जाएगी। युद्ध के मध्य में ही एक माह पश्चात माधो सिंह अपने गांव मलेथा पहुंचे। तब उत्सव पूर्वक दीपावली मनाई गई। तब से अब तक मंगशीर के माह इस बग्वाल को मनाने की परंपरा गढ़वाल में प्रचलित है।