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यहां कुछ इस तरह रस्सी पर झूल रही है 'जिंदगी', पढ़िए पूरी खबर

पिथौरगढ़ के नाचनी में जिंदगी खतरे में है। यहां बुल बहने के बाद से ही लोग गरारी की रस्सी खींचकर अपने बच्चों को स्कूल भेज रहे हैं। जिससे कभी भी कोर्इ बड़ा हादसा हो सकता है।

By Raksha PanthariEdited By: Published: Wed, 17 Oct 2018 05:38 PM (IST)Updated: Wed, 17 Oct 2018 09:04 PM (IST)
यहां कुछ इस तरह रस्सी पर झूल रही है 'जिंदगी', पढ़िए पूरी खबर
यहां कुछ इस तरह रस्सी पर झूल रही है 'जिंदगी', पढ़िए पूरी खबर

नाचनी, पिथौरागढ़[जेएनएन]: रस्सी पर 'जिंदगी' झूल रही है...ये कहना बिल्कुल भी गलत नहीं होगा। दरअसल, यहां तीन महीने पहले आपदा में पुल बह गया था। जिसके बाद से ही शासन राहत इंतजामों के दावे कर रहा है और प्रशासन को इंतजार बजट का है। इस सबका खामियाजा बागेश्वर जनपद के चार गांवों के पांच दर्जन बच्चे, उनके अभिभावक और क्षेत्र के आम लोग भुगत रहे हैं। नाचनी में पढ़ने वाले अपने बच्चों को विद्यालय भेजने के लिए यहां माताएं रोज छह से 12 किमी पैदल चल कर रामगंगा नदी पर लगी गरारी की रस्सी खींचने के लिए जाती हैं, ताकि उनके बच्चे स्कूल तक पहुंच सकें। 

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नदी के पार बागेश्वर जिले में हैं प्रभावित गांव 

नाचनी से होकर बहने वाली रामगंगा नदी के दूसरा छोर बागेश्वर जिले का हिस्सा है। यानी यह नदी पिथौरागढ़ और बागेश्वर जिले की सीमा है। इस क्षेत्र के चार गांव कालापैर काभड़ी, भकुंडा, पालनधूरा और केंचुवा का सीधा संपर्क पिथौरागढ़ जिले के नाचनी से है। इन गांवों के बच्चों को पिथौरागढ़ जिले के नाचनी में नर्सरी से इंटर तक पढ़ने के लिए आना-जाना होता है। पांच दर्जन बच्चे नाचनी के पब्लिक स्कूलों, सरस्वती शिशु मंदिर और राइंका में पढ़ने आते हैं।  

बादल फटने के चलते बह गया था झूला पुल 

रामगंगा नदी में आवाजाही के लिए दो जिलों को जोड़ने वाला झूला पुल 11 जुलाई को बादल फटने से ऊफनाई राम गंगा नदी  में बह गया। तब से यहां वैकल्पिक व्यवस्था के लिए लगाई गई ट्राली यानी गरारी ही सहारा है। जो रस्सी के सहारे चलती है। इसकी रस्सी को खींचकर ही आवाजाही हो सकती है। 

समस्या को लेकर ग्रामीण लगा रहे गुहार 

पूर्व प्रधान एवं समाज सेवी लक्ष्मी दत्त पाठक का कहना है कि पिछले तीन माह से से नौनिहाल जान खतरे में डालकर शिक्षा ग्रहण करने जा रहे हैं। कई घरों में पुरुष बाहर होते हैं, वहां महिलाएं बच्चों को नदी पार कराने के लिए आती-जाती हैं। कार्य के बोझ से दबी ग्रामीण महिलाओं को अपने घर व खेत के अन्य कार्य छोड़कर गरारी की रस्सी खींचने में ही काफी समय खर्च करना पड़ रहा है। कम से कम इस मामले संवेदनशीलता दिखाते हुए क्षतिग्रस्त पुल का निर्माण प्राथमिकता से होना चाहिए। 

कर्इ जगह रस्सी और ट्रॉली के सहारे चल रही है जिंदगी 

ये हालात उत्तराखंड के कर्इ जिलों में भी हैं। जहां पुल बहने के बाद से लोग ट्रॉली के सहारे जान जोखिम में डालकर आवाजाही करते हैं। इसके चलते कर्इ दुर्घटनाएं भी हो चुकी है। बात उत्तरकाशी की करें तो यहां भी रस्सी-ट्रॉली के सहारे जिंदगी चल रही है। 

उत्तरकाशी जिले के 15 से अधिक गांवों को रस्सी-ट्रॉलियों के झंझट से मुक्ति नहीं मिल पा रही है। ट्रॉलियों में हादसे होते जा रहे हैं और तंत्र बेखबर बना हुआ। पिछले पांच सालों के दौरान उत्तरकाशी जनपद में ट्रॉली से गिरने वाले दर्जनों हादसे हो चुके हैं। इन ट्रॉलियों के स्थान पर स्थाई समाधान नहीं हुए। नतीजा, आज भी 15 से अधिक गांव के ग्रामीणों को नदी पार करने के लिए स्वयं बनाई अस्थायी कच्ची पुलिया और रस्सी-ट्रॉलियों का सहारा लेना पड़ रहा है।  

उत्तरकाशी जिले की गंगा व यमुना घाटी में विकास के लिए लोग लंबे समय से तरस रहे हैं। कुछ सुविधाएं ग्रामीणों को मिल रही थी तो वह वर्ष 2012 व 2013 की आपदा ने छीनी। जनपद के छोटे-बड़े 16 से पुल बह गए थे। इनमें से संगमचट्टी में एक छोटा पैदल पुल, डिगिला में बेली ब्रिज, बनचौरा, बड़ेथी, अठाली, जोशियाड़ा व उत्तरो, डिडसारी में झूलापुल तो बनकर तैयार हो गए हैं, लेकिन शेष पुलों पर या तो आधा-अधूरा कार्य हुआ अथवा हुआ ही नहीं। 

इसके चलते 15 से अधिक गांवों के ग्रामीणों को खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। चामकोट, खरादी, नलूणा, ठकराल पट्टी के गौल, फूलधार, कुर्सिल, स्याबा, नगाणगांव, मशालगांव, सुंकण, थान आदि गांवों के लोग तो 2012 से रस्सी व ट्रॉलियों के सहारे ही नदियों को पार कर रहे हैं। गजोली-भंकोली, सटूड़ी, हलारा गाड़, खेड़ाघाटी व बाडिया में बने अस्थायी पुल भी हर बरसात में बह जाते हैं। सो, ग्रामीणों को फिर ट्रॉली का सहारा लेना पड़ता है। 

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