पहाड़ी क्षेत्रों में बढ़ रहे एड्स के मामले
जागरण संवाददाता कोटद्वार लम्हों ने की खता और सजा सदियों ने पाई। अनजाने में हुई इक छो
जागरण संवाददाता, कोटद्वार:
'लम्हों ने की खता और सजा सदियों ने पाई'। अनजाने में हुई इक छोटी सी भूल ने न सिर्फ उसका बल्कि उससे जुड़े उन तमाम लोगों का जीवन खतरे में डाल दिया, जो उसके बेहद अजीज थे। यह कहानी किसी एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि हर उस व्यक्ति की है जो किसी न किसी रूप में एड्स से पीड़ित है। हैरानी की बात तो यह है कि लगातार जागरूकता अभियानों के बावजूद पहाड़ी क्षेत्रों में भी एड्स के मामले बढ़ते जा रहे हैं।
उत्तराखंड में पिछले कुछ वर्षो में एड्स का ग्राफ जिस तेजी से बढ़ा, उसने इस विषय को सार्वजनिक चर्चा में शामिल कर दिया। एड्स की रोकथाम के लिए जहां जागरूकता रैलियां निकलने लगी, वहीं लोगों को एड्स से बचाव के उपाय भी बताए जाने लगे। वर्ष 2002 में प्रदेश में एड्स के 23 मामले प्रकाश में आए थे। जबकि, 2017-18 में इनकी तादाद बढ़कर 958 पहुंच गई और वर्तमान में यह संख्या हजार के आंकड़े को पार कर गई है। कोटद्वार के राजकीय चिकित्सालय में वर्ष 2008 से आइसीटीसी(इंटीग्रेटेड काउंसिलिंग एंड टेस्टिंग सेटर) ने कार्य शुरू किया और क्षेत्र में एड्स का एक भी मामला प्रकाश में नहीं आया। लेकिन, 2009-10 में 26 मामले प्रकाश में आए और आज इनकी तादाद बढ़कर 188 पहुंच गई है। इनमें 95 पुरुष और 93 महिलाएं शामिल हैं।
प्रसव को पहुंची तो एड्स का पता चला
एड्स को लेकर पर्वतीय क्षेत्रों में आज भी जानकारी का घोर अभाव है। हालात यह हैं कि पर्वतीय क्षेत्रों से प्रसव को कोटद्वार पहुंचने वाली कई महिलाओं में प्रसव जांच के दौरान एड्स की पुष्टि हुई। बेस चिकित्सालय की आइसीटीसी काउंसलर संगीता बताती हैं कि गर्भवती महिलाओं और शल्य चिकित्सा वाले मरीजों की एड्स जांच आवश्यक है। बताया कि पर्वतीय क्षेत्रों से आई छह महिलाएं ऐसी थी, जो प्रसव के लिए चिकित्सालय पहुंची थी। बताया कि जांच के दौरान जब उनमें एड्स की पुष्टि हुई तो महिलाओं का कहना था कि उन्हें इस संबंध में पूर्व में कोई जानकारी नहीं थी। बताया कि प्रसव के बाद जन्मे बच्चों को तत्काल दवा देकर एड्स से बचा लिया गया। बताया कि चिकित्सालय में आठ नवजात शिशुओं को एड्स से बचाया गया।
एनजीओ भरोसे जागरूकता का गाड़ी
कुछ वर्ष पहले तक स्वास्थ्य महकमा स्वयं ही आमजन को एड्स के प्रति जागरूक करता था। इसके लिए महकमा ग्रामीण स्तर तक अपने नुमाइंदों को भेज ग्रामीणों में भी जागरूकता फैलाता था। लेकिन, पिछले कुछ वर्षों से जागरूकता का पूरा जिम्मा विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाओं के भरोसे है। संस्थाएं भले ही गांव-गांव जाकर जागरूकता फैलाने का प्रयास कर रही हों, लेकिन आमजन की ओर से उन्हें खास तवज्जो नहीं दी जाती। इसके कारण जागरूकता अभियान शिथिल होता जा रहा है।
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तमाम प्रयासों के बावजूद दूरदराज के क्षेत्रों में आज भी लोग एड्स के प्रति जागरूक नहीं हैं और इस संबंध में बात तक करने को तैयार नहीं होते। हालांकि, जागरूकता का ही परिणाम है कि आज लोग एकीकृत सलाह और जांच केंद्र (आइसीटीसी)में पहुंचकर जांच करवा रहे हैं।
डॉ. बीएस जंगपांगी, मुख्य चिकित्सा अधिकारी, पौड़ी