धान की खेती से लगातार गिरता जा रहा है तराई में जलस्तर, किसानों ने कहा सिडकुल की फैक्ट्रियां भी बड़ा कारण
तराई में जलस्तर लगातार कम हो रहा है। इसके बाद भी किसान धान की बुआई कर रहे हैं। फरवरी के अंतिम व मार्च के प्रथम सप्ताह में ग्रीष्मकालीन धान की बुआई की जा चुकी है। धान की फसल सिंचाई पर ही निर्भर करती है।
रुद्रपुर, जागरण संवाददाता : तराई में जलस्तर लगातार कम हो रहा है। इसके बाद भी किसान धान की बुआई कर रहे हैं। फरवरी के अंतिम व मार्च के प्रथम सप्ताह में ग्रीष्मकालीन धान की बुआई की जा चुकी है। धान की फसल सिंचाई पर ही निर्भर करती है। किसानों का कहना है कि फसलों की लागत लगातार बढ़ रही है। इसको कम करने के लिए ही धान की खेती की जा रही है। सरकार सिडकुल की बड़ी इंडस्ट्रीज पर कार्रवाई न कर किसानों पर दवाब डाल रही है। जबकि विशेषज्ञों का कहना है कि धान की खेती के कारण जलस्तर गिर रहा है।
तराई में लगभग 15 हजार हेक्टेअर में धान की खेती की जाती है। फरवरी के अंतिम व मार्च के प्रथम सप्ताह में इसकी बुआई किसान करते हैं। जबकि सरकार की तरफ से बुआई को लेकर हर साल जागरूकता अभियान चलाए जाते हैं। सरकार एक तरफ किसानों से जलस्तर को लेकर ग्रीष्मकालीन धान न लगाने की अपील कर रही है तो दूसरी तरफ सिडकुल में बड़ी से लेकर छोटी इंडस्ट्रीज लगातार जल का दोहन अंधाधुंध तरीके से कर रही हैं। किसानों का कहना है कि पहले उनपर प्रतिबंध लगाया जाए।
किसान बोले-बड़ी इंडस्ट्रीज जलस्तर कम करने के दोषी
इस बार करीब 12 एकड़ में धान की बुआई की है। भूगर्भ जलस्तर का इससे नुकसान होता है। खेती में लागत इतनी है कि दूसरी फसलों की अपेक्षा इस फसल से लागत बढिय़ा निकलती है। वहीं इस समय धान की फसल में कीड़ों से नुकसान कम होता है।
अरविंद मौर्य, गांव छतरपुर, रुद्रपुर
धान की बुआई इस बार भी की है। इसमें लागत कम आती है वहीं प्रति एकड़ कम से कम 33 क्विंटल तक धान मिल जाता है। जबकि बारिश की फसल में इतनी फसल नहीं मिल पाती। दूसरी ओर किसानों पर ही सरकार दवाब डाल रही है, वहीं जलस्तर सबसे अधिक बड़ी इंडस्ट्रीज की वजह से कम होता जा रहा है।
-जसवीर सिंह, गांव मलसी, रुद्रपुर
कुल पानी का 60 फीसद हिस्सा खेती पर होता है खर्च
धरती मौजूद पानी का 97.5 प्रतिशत पानी समुद्र में है जो खारा है, शेष 1.5 प्रतिशत पानी बर्फ के रूप में घ्रुव प्रदेशों में है। इसमें से बचा एक प्रतिशत पानी का 60वां हिस्सा खेती और कारखानों में खपत होता है। बाकी का 40वां हिस्सा हम पीने, भोजन बनाने, नहाने, कपड़े धोने एवं साफ-सफाई में खर्च करते हैं। पंतनगर विश्वविद्यालय के पर्यावरण विभाग के विभागाध्यक्ष व पर्यावरणविद आरके श्रीवास्तव की मानें तो जिले में पिछले 50-60 वर्षों से रह रहे लोगों को यह अच्छी तरह पता है कि तराई में कालोनाइजेशन स्कीम के तहत बसाए जाने की प्रक्रिया के दौरान कई स्थानों पर 'आर्टीजन बेल' लगाये गये थे। आज वे कहां हैं और क्यों सूख गए इस बात पर चर्चा और अध्ययन किये बगैर ही 'डीप ड्रिलिंग' कर धड़ाधड ट्यूबवेल लगाए जा रहे हैं।
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