कुमाऊं में अलग है भैया दूज मनाने की परंपरा, यहां दूतिया त्यार के नाम से प्रचलित है यह लोक पर्व
दीपावली के तीसरे दिन मनाए जाने वाले त्योहार को आमतौर पर भैया दूज के नाम से जाना जाता है। कुमाऊं अंचल में भैया दूज को दूतिया त्यार (यम द्वितीया पर्व) के रूप मनाने की लोक परंपरा है। यम द्वितीया की तैयारी कुछ दिन पहले से हो जाती है।
हल्द्वानी, जेएनएन : दीपावली के तीसरे दिन मनाए जाने वाले त्योहार को आमतौर पर भैया दूज के नाम से जाना जाता है। कुमाऊं अंचल में भैया दूज को दूतिया त्यार (यम द्वितीया पर्व) के रूप मनाने की लोक परंपरा है। यम द्वितीया की तैयारी कुछ दिन पहले से हो जाती है। एकादशी, धनतेरस या दीपावली के दिन तौले (एक बर्तन) में धान भिगो दिए जाते हैं। गोवर्धन पूजा के दिन धान को पानी से अलग कर कढ़ाई में आग पर भूना जाता है। उसके बाद इसे गरम-गरम मूसल से कूटा जाता है। यह धान से चावल को अलग करने का पारंपरिक तरीका है। आग में भूने होने की वजह से चावल स्वादिष्ट होता है। इसे च्यूड़े कहा जाता है।
पूजे हीं नहीं जाते, खाए भी जाते हैं च्यूड़े
च्यूड़े देवताओं और सिर पर चढ़ाने के साथ खाए भी जाते हैं। च्यूड़े में अखरोट, भूनी भांग व सोयाबीन मिलाया जाता है। शर्दियों में इसका सेवन गर्माहट देता है। संस्कृति कर्मी जगमोहन रौतेला कहते हैं कि च्यूड़े बनाने से पहले धूप जलाकर ओखल की पूजा की जाती है। ओखल की पूजा का मतलब है कि उसमें कूटा हुआ अनाज पूरे परिवार को साल भर खाने को मिले और परिवार में किसी को भी भूखे पेट न सोना पड़े।
च्यूड़े के साथ दूब पूजने की परंपरा
यम द्वितीया की सुबह पूजा इत्यादि के बाद घर की सबसे सयानी महिला च्यूड़ों को सबसे पहले देवताओं को अर्पित करती हैं। उसके बाद परिवार के हर सदस्य के सिर में चढ़ाती हैं। च्यूड़ों में सरसों का तेल और हरी दूब मिलाई जाती है। ज्योतिषाचार्य डा. नवीन चंद्र जोशी बताते हैं कि दूब गुणकारी है। तमाम संकटों और विपरीत परिस्थितियों में भी दूब अपना विस्तार नहीं छोड़ती। दूब हमें संघर्षों से जूझते हुए अपने उद्देश्य की ओर बढऩे का संदेश देती है। जगमोहन रौतेला कहते हैं कि सिर में च्यूड़े चढ़ाने का संबंध भाई-बहन से नहीं है। विवाहित महिला परिवार में हर एक के सिर में चढ़ाती हैं। स्थानीय लोक परंपरा के मुताबिक इसमें छोड़ी बहुत अंतर रहता है।
ओखल के साथ च्यूड़े का स्वाद भी हो रहा गायब
समय के साथ खेती कम हुई है। ओखल और चक्की भी कम होती जा रही है। ऐसे में धान की कुटाई मशीन से होने लगी है। हालांकि कुछ घरों में च्यूड़े अभी भी ओखली में ही तैयार होते हैं। शहरों में रहने वाले लोग बाजार में मौजूद पोहा खरीदने लगे हैं। जगमोहन रौतेला कहते हैं कि पोहों में न वो स्वाद है और न अपनापन। आमा, ईजा, जैजा, काखी के हाथों की महक पोहों में नहीं होती। तथाकथित प्रगति और विकास ने हमसे हमारी लोक संस्कृति के साथ अपनापन भी छीन लिया।