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अल्मोड़ा मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य डा. नौटियाल ने यूं नहीं भेजा था इस्तीफा

काम में ढिलाई ठेकेदार व कार्यदायी एजेंसी के बीच घमासान जनप्रतिनिधियों व शासन में बैठे अधिकारियों की निष्क्रियता जैसे तमाम विषय सामने आए तो कालेज के प्राचार्य प्रो. आरजी नौटियाल ने इस्तीफा भेज दिया था। हालांंकि शासन ने इसे स्वीकार नहीं किया गया।

By Skand ShuklaEdited By: Published: Sat, 24 Oct 2020 03:37 PM (IST)Updated: Sat, 24 Oct 2020 03:37 PM (IST)
अल्मोड़ा मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य डा. नौटियाल ने यूं नहीं भेजा था इस्तीफा

हल्द्वानी, जेएनएन : इस्तीफा और एनएमसी (नेशनल मेडिकल कमीशन) के इन्कार में समानता है। आखिर यह समानता कैसी? सुनने में थोड़ा अटपटा सा लगता है, लेकिन हकीकत है। बात है राजकीय मेडिकल कालेज अल्मोड़ा की, जिसका निर्माण 2012 से हो रहा है। घोषणा की मत पूछिए, वर्ष 2004 की है। काम में ढिलाई, ठेकेदार व कार्यदायी एजेंसी के बीच घमासान, जनप्रतिनिधियों व शासन में बैठे अधिकारियों की निष्क्रियता जैसे तमाम विषय सामने आए तो कालेज के प्राचार्य प्रो. आरजी नौटियाल ने इस्तीफा भेज दिया था। हालांंकि शासन ने इसे स्वीकार नहीं किया गया। करते भी कैसे? इतनी जल्दी दूसरे प्राचार्य भी क्या कर लेते? समय बीता। एनएमसी की टीम ने जब हकीकत देखी तो दंग रह गई। न स्टाफ का पता और न ही संसाधन पूरे। भवन भी आधा-अधूरा। पीने के लिए पानी तक की व्यवस्था नहीं। ऐसे में एमबीबीएस कोर्स की अनुमति से इन्कार कर दिया।

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बांडधारी डाक्टरों को डर दिखाने मजा

सीएम से लेकर मंत्री, हर कोई यही कहता है कि डाक्टरों की कमी है। डाक्टर सरकारी सिस्टम ज्वाइन करते ही नहीं। ऐसे में हम क्या करें? मीडिया व जनता के सामने ऐसा सुनने में भले ही सच लगता हो, लेकिन हकीकत यह नहीं है। जिन 320 विद्यार्थियों को सरकारी शुल्क में पढ़ाया। उन्होंने भी सरकार को धोखा दे दिया। सरकारी सिस्टम इतना पंगु हो गया कि उनके धोखे में आ गया। असहाय हो गया। दरअसल, जो दिखता है वह होता नहीं। सरकारी शुल्क में पढऩे वाले अधिकांश बांडधारी डाक्टर कोई और नहीं, सरकारी सिस्टम को हांकने वालों के ही अपने हैं। तभी तो उन पर कुछ कार्रवाई नहीं होती सिवाय गीदड़ भभकी के। जबकि यह मामला बार-बार सुर्खियों में रहता है। एक बार फिर त्रिवेंद्र सरकार इन बांडधारी डाक्टरों की कुर्की करने की बात कर रही है। अब डर दिखाने के इस तरीके का भी मजा लिया जाए।

कब आएगी दुग्ध व हरित क्रांति?

कितने खूबसूरत शब्द हैं... दुग्ध क्रांति, हरित क्रांति। इन्हें सुनने व महसूस करने का मजा ही कुछ और है। निर्धारित उद्देश्य के लिए ये शब्द तो बहुत पहले ही गढ़े जा चुके थे, लेकिन उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सरकार को ये शब्द साढ़े तीन साल बाद याद आए। जब उन्हें यह कहना चाहिए था कि प्रदेश में दुग्ध व हरित क्रांति आ चुकी है। तब वह कर रहे हैं आएगी। कब आएगी? कैसे आएगी? इसके लिए रोडमैप आना बाकी है। इंतजार रहेगा। एक और बात है, सीएम ने किसानों से आधुनिक खेती के साथ उन्नतशील बीजों का उपयोग कर कम भूमि पर अधिक उपज पैदा करने का आह्वान किया। उम्मीद जगाने वाला आह्वान है। पर सवाल ये है कि न्याय पंचायत स्तर पर किसानों को उन्नतशील बीजों की उपलब्धता, आधुनिक खेती की जानकारी देने के लिए सिस्टम बना है? इस पर गंभीरता से पहल की जरूरत है।

कोरोना के बाद अब गुलदार की दहशत

पहले कोरोना की दहशत थी। घर से बाहर निकलना मुश्किल था। जैसे-जैसे लोग कोरोना से सहज होकर घरों से बाहर निकलने लगे, वहीं अब मानव-वन्य जीव संघर्ष ने दहशत बढ़ा दी। तराई से लेकर पहाड़ तक, गुलदार का आतंक है। कुमाऊं में ही हर दूसरे दिन एक घटना सामने आ रही है। ओखलकांडा में ही गुलदार ने 24 घंटे में दो लड़कियों की जान ले ली। पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, पौड़ी जिलों में लगातार घटनाएं बढ़ गई हैं। दहशत से लोगों का घरों से बाहर निकलना मुश्किल हो गया है। ऐसे में गंभीर होती जा रही घटनाओं को रोकना चुनौती बन गया है। अगर गुलदार को आदमखोर घोषित कर ऐसे ही मारते रहे तो इनकी संख्या पर फर्क पड़ जाएगा। और नहीं मारते हैं तो लोगों की जान खतरे में है। ऐसे में विशेषज्ञों को मानव-वन्यजीव संघर्ष को रोकने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे, ताकि हम स्थायी समाधान की ओर बढ़ सकें।


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