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विश्व युद्ध के दौरान भी नहीं रुका था नंदा देवी महोत्सव, अद्भुत है मूर्ति निर्माण की परंपरा

सरोवर नगरी नैनीताल में 118 वें नंदा देवी महोत्सव का श्रीगणेश हो चुका है। इस बार महोत्सव में मूर्ति के निर्माण के लिए पवित्र कदली का पेड़ समीपवर्ती खुर्पाताल के जोगयुड़ा से लाया गया

By Skand ShuklaEdited By: Published: Mon, 24 Aug 2020 10:09 AM (IST)Updated: Mon, 24 Aug 2020 10:09 AM (IST)
विश्व युद्ध के दौरान भी नहीं रुका था नंदा देवी महोत्सव, अद्भुत है मूर्ति निर्माण की परंपरा
विश्व युद्ध के दौरान भी नहीं रुका था नंदा देवी महोत्सव, अद्भुत है मूर्ति निर्माण की परंपरा

नैनीताल, किशोर जोशी : सरोवर नगरी नैनीताल में 118 वें नंदा देवी महोत्सव का श्रीगणेश हो चुका है। इस बार महोत्सव में मूर्ति के निर्माण के लिए पवित्र कदली का पेड़ समीपवर्ती खुर्पाताल के जोगयुड़ा से लाया गया है। आज शाम से नयना देवी मंदिर के निकट सेवा समिति हॉल में मूर्ति निर्माण शुरू होगा। 25 अगस्त को ब्रह्ममुहूर्त में मां नंदा सुनंदा की मूर्तियों को मंडप में प्रतिष्ठापित किया जाएगा। 1903 से नंदा देवी महोत्सव प्रतिवर्ष आयोजित हो रहा है। विश्वयुद्ध के दौरान भी इसमें अवरोध नहीं आया था।

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जानिए कैसे होता है मूर्ति निर्माण

में महोत्सव माता नंदा-सुनंदा की मूर्ति निर्माण में कलापक्ष पर अधिक ध्यान दिया जाना है। बेहतरी के लिए बदलाव भी होते रहे हैं। नंदा-सुनंदा की मूर्तियां ईको-फ्रेडली वस्तूओं से बनाई जाती हैं। इसी वजह से महोत्सव को पर्यावरण संरक्षण की मिसाल भी माना जाता है। एक दौर में चांदी की मूर्तियां बनाए जाने का भी इतिहास है।

साह परिवार आज भी परंपरा

1903 से लगातार महोत्सव दो विश्व युद्धों के दौरान भी जारी रहा। नैनीताल में श्रीराम सेवक सभा के अध्यक्ष रहे स्व ठाकुर दास साह का परिवार आज भी परंपरा निभाते हुए मूर्ति निर्माण से जुड़ा है। उनके पुत्र चंद्र प्रकाश साह इस बार मूर्ति निर्माण समिति के संयोजक हैं। उन्हीं के निर्देशन में इस बार मूर्ति निर्माण होगा। साह बताते हैं कि पहले परंपरागत मूर्तियां ही बनती थीं।

 

मूर्ति निर्माण में 1945 से बदलाव

मूर्ति निर्माण में 1945 से बदलाव आने लगे। 1950 में शारदा संघ के संस्थापक बाबू चंद्र लाल साह व स्वामी मूलचंद की जुगलबंदी के बाद सुंदर मूर्तियां बनाई जाने लगीं। 1955-56 तक मूर्तियों का निर्माण चांदी से होता था लेकिन फिर परंपरागत मूर्तियां बनने लगीं। ठाकुर नवाब साह, रमेश चन्द्र चौधरी आदि ने भी मूर्ति निर्माण में योगदान दिया। वरिष्ठ कलाकार चंद्र लाल साह 1971 तक मूर्तियों का निर्माण करते रहे।

प्रतिमा को जीवंत बनाने की कोशिश

प्रसिद्ध चित्रकार विश्वम्भर नाथ साह ‘सखा दाज्यू’ जैसे स्थानीय कलाकारों ने मूर्तियों को सजीव रूप देकर व लगातार सुधार किया, परिणाम स्वरूप नैनीताल नंदा-सुनंदा की मूर्तियां, महाराष्ट्र के गणपति जैसी ही जीवंत व सुंदर बनती हैं। मूर्तियों के निर्माण में कदली वृक्ष के तने, पाती, कपड़ा, रुई व प्राकृतिक रंगों का ही प्रयोग किया जाता है। सभा के अध्यक्ष रहे दिवंगत गंगा प्रसाद साह की पहल पर मूर्ति निर्माण में थर्माकोल का प्रयोग बंद कर दिया गया।

साज-सज्जा का रखा जाता है ध्यान

मूर्ति निर्माण संयोजक चंद्रप्रकाश साह के अनुसार मूर्तियां समान आकार की बनें, सजा खास ध्यान रखा जाता है। पिछले सालों मूर्ति के कपड़े को देखकर भी मूर्ति बनाई जाती है। माता के चेहरे को मुस्कुराहट लिए हुए बनाने की कोशिश की जाती है। मूर्ति निर्माण में बांस की खपच्चियों का प्रयोग भी किया जाता है। महोत्सव की समाप्ति के बाद मूर्तियों को झील में विधि विधान के साथ विसर्जित किया जाता है। आयोजन सभा के महासचिव जगदीश बवाड़ी बताते हैं कि मूर्ति निर्माण ही महोत्सव का सबसे महत्वपूर्ण सांस्कृतिक, धार्मिक व कलात्मक पक्ष है।

केला के पेड़ से बनती है मूर्ति

संयोजक मूर्ति निर्माण, श्रीराम सेवक सभा चंद्रप्रकाश साह ने बताया कि मूर्तियों का निर्माण कदली (केला) के पेड़ से किया जाता है। पांच फिट का केले का तना काटकर, उसमें बांस की खपच्चियों से चेहरे का आकार दिया जाता है। आंख, कान बनाने के साथ नाक बनाने के लिए बड़े बटन लगाए जाते हैं। सांचे को दबाने के लिए रुई का उपयोग किया जाता है। मूर्ति बनाने में तीन मीटर सूती का कपड़ा लेकर उसे पीले रंग में रंगा जाता है। आकार बनाने के बाद मूर्ति में जेवर पहनाए जाते हैं। महोत्सव समाप्त होने के बाद मूर्तियों का झील में विसर्जन किया जाता है। केला जल में घुलनशील है, इसलिए महोत्सव प्रर्यावरण संरक्षण का संदेश भी देता है।


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