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चीन के लिए पुरखों की 'माटी' से दगा कर रहे ओली, दुश्‍मनों को नहीं भाता रोटी-बेटी का संबंध

उत्तराखंड के काली कुमाऊं क्षेत्र में अब भी प्रचलित रोटी-बेटी के रिश्तों को दरकिनार करने वाले ओली के माता-पिता खुद इसी माटी में पैदा हुए थे।

By Skand ShuklaEdited By: Published: Fri, 31 Jul 2020 05:24 PM (IST)Updated: Sat, 01 Aug 2020 09:24 PM (IST)
चीन के लिए पुरखों की 'माटी' से दगा कर रहे ओली, दुश्‍मनों को नहीं भाता रोटी-बेटी का संबंध
चीन के लिए पुरखों की 'माटी' से दगा कर रहे ओली, दुश्‍मनों को नहीं भाता रोटी-बेटी का संबंध

नैनीताल : वर्तमान का मतलब यह नहीं होता कि अतीत पूरी तरह समाप्त हो चुका हो। इसलिए बात शुरू करने से पहले अतीत की तरफ चलते हैं। भारत को आंखें तरेरने वाले खडग प्रसाद शर्मा ओली का अतीत। उत्तराखंड के काली कुमाऊं क्षेत्र में अब भी प्रचलित 'रोटी-बेटी' के रिश्तों को दरकिनार करने वाले ओली के माता-पिता खुद इसी माटी में पैदा हुए थे। वे एक साधारण भूमिहर ब्राह्मण थे, जो सालों पहले पूर्वी नेपाल के तेहराथूम में बस गए। चीन से दोस्ती निभाकर भारत के लिए अनर्गल प्रलाप करने वाले ओली को कम से कम अपनी पीढ़ी के अतीत और भारत से जुड़ाव को याद करना चाहिए। तय करना चाहिए कि दोस्ती बड़ी या वर्षों पुरानी भारत की माटी से संबंध।

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ओली का जन्म 22 फरवरी 1952 में आरथाई गांव में हुआ। सन 1962 में आर्थिक तंगी से जूझता हुआ उनका परिवार नेपाल के दक्षिण पूर्वी जिला झापा में पुन: बस गया। अभाव से जूझते और नक्सलवादी झापा से नजदीकी होने के कारण माओवादी सोच व विचारधारा ओली के मन में समा गई।

कानू सान्याल और चारू मजूमदार ओली के आदर्श बने। बाल अवस्था से ही उत्पाती प्रवृत्ति व निरंकुश व्यवहार के ओली ने राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1966 में झापा से की। 1970 में वे नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने और नेपाल नरेश व उनकी नीतियों के खिलाफ बगावतों और आंदोलनों में अग्रणी हो गए। एक खूनखराबे में संलिप्त होने के कारण ओली 1973 से 1987 तक 14 साल जेल में बंद रहे। कम्युनिस्ट तरंगों से सराबोर ओली नेपाल की मुख्य कम्युनिस्ट कमेटी (यूनिफाइड मार्कसिस्ट-लेनिनवादी) लुंबिनी जोन के 1990 तक प्रमुख रहे। इसके बाद 1991 में झापा के एमपी बने। 1992 में सीपीएन (यूएमएल) के विदेशी महकमे के सर्वेसर्वा बने। यहीं से चीन की गिद्ध नजरों ने उन्हें पकड़ा और वह भी ड्रेगन के दीवाने हो गए।

11 अक्टूबर 2015 से लेकर 14 जुलाई 2016 तक पहली बार वह नेपाल के प्रधानमंत्री बने। नए नेपाली संविधान संशोधन के लागू करने पर भारतीय आर्थिक अवरोध की भत्र्सना करने वाले ओली ने चीन के साथ व्यापार और ट्रांजिट संधि पर हस्ताक्षर किए। दूसरी बार 15 फरवरी 2018 को प्रधानमंत्री बने। आज उनके व प्रचंड के बीच घमासान जगजाहिर है। ताजा हालात को देखें तो चीन पूरे नेपाल में हावी हो चुका है।

भारत और नेपाल के बीच 1950 में एक बड़ी शांति और दोस्ती की संधि हुई थी जो आज भी लागू है। पड़ोसी राष्ट्र होने के कारण सीमाएं खुली हैं। पारस्परिक आवागमन में कोई रोक-टोक नहीं है। चीन और पाकिस्तान को यही नहीं सुहाता। पूरे नेपाल विशेषकर काठमांडू घाटी में चीनियों और पाकिस्तानी एजेंसी आइएसआइ का फैलाव है। नेपाल का एक वर्ग जो अपने को बुद्धिजीवी मानता है, भारत का धुर विरोधी है और इस मानसिकता को बढ़ावा देते हैं वहां के राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ और अफसर।

1816 में सुगौली संधि के फलस्वरूप कुमाऊं और नेपाल की सरहद काली नदी को माना गया। अमर सिंह थापा ने संधि पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। अत: शिमला से लेकर कुमाऊं तक का सारा इलाका अंग्रेजों के हाथ आ गया। पारंपरिक मानसरोवर का रास्ता लिपुलेख होते हुए दशकों पुराना है। अब इतने सालों बाद चीन के उकसाने पर लिंपियाघुरा, कालापानी और लिपुलेख को नेपाली मानचित्र में दर्शाकर ओली ने अपनी कमजोर सोच, मूर्खतापूर्ण व्यवहार का प्रदर्शन किया है।

लिपुलेख के पश्चिम में 12 और सामरिक महत्व के दर्रे हैं, जिनकी सीमा तिब्बत स्वायत्तशासी क्षेत्र और उत्तराखंड के उत्तरी भाग से लगी है। चमोली जिले में स्थित यही वह बाराहोती क्षेत्र है जहां चीन के सैनिक और हेलीकॉप्टर आए दिन सीमा नियमों का उल्लंघन करते हैं। लिंपियाधुरा दर्रे से यह क्षेत्र अब नजदीक हो जाता है और बद्रीनाथ, जोशीमठ एवं बाराहोती इलाकों में खतरा बढ़ता है। चीन-नेपाल जुगलबंदी के निर्माता मुख्य तौर पर चीन की विस्तारवादी कम्युनिस्ट पार्टी, नेपाली कम्युनिस्ट राजनेता, नेपाली फौज और नेपाली अफसरशाही है। इन सबके पीछे चीनी राजदूत हुआ यांकी का विशेष योगदान है।

ओली मूकदर्शक हैं। वे शायद भूल गए कि नेपाल का एक समृद्धशाली इतिहास है। भारतीय और नेपाली मूल के लाखों लोग दोनों राष्ट्रों में पारस्परिक मेलजोल और सद्भाव से रहते हैं। अब यह नेपाली विवेक पर आधारित है कि वह भारत के साथ कैसे संबंध चाहता है। एक आम भारतीय और नेपाली के मध्य कोई भी दुर्भावना नहीं है। इतिहास इसका साक्षी है।

लेखक : मोहन चंद्र भंडारी, लेफ्टिनेंट जर्नल (रिटायर्ड) हैं। कारगिल युद्ध के समय सेना के प्रवक्ता रहे।


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