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पीएम मोदी ने जिस रं समुदाय के बारे में की मन की बात, जानें उसकी कुछ खास बातें nainital news

चीन और नेपाल सीमा से लगे अति दुर्गम और बर्फीले क्षेत्र में रहने वाले रं समुदाय के प्रयास की चर्चा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने लोकप्रिय कार्यक्रम मन की बात में की।

By Skand ShuklaEdited By: Published: Sun, 24 Nov 2019 05:55 PM (IST)Updated: Sun, 24 Nov 2019 08:42 PM (IST)
पीएम मोदी ने जिस रं समुदाय के बारे में की मन की बात, जानें उसकी कुछ खास बातें nainital news
पीएम मोदी ने जिस रं समुदाय के बारे में की मन की बात, जानें उसकी कुछ खास बातें nainital news

पिथौरागढ़, जेएनएन : चीन और नेपाल सीमा से लगे अति दुर्गम और बर्फीले क्षेत्र में रहने वाले रं समुदाय के प्रयास की चर्चा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने लोकप्रिय कार्यक्रम मन की बात में की। उन्‍होंने कहा कि समुदाय के लोगों ले अपनी बोली और भाषा को बचाए रखने के लिए अभूतपूर्व प्रयास किया। अति दुर्गम क्षेत्र होने के बाद भी जिस तरह से उन्‍होंने अपनी पहचान को बचाए रखने का प्रयास किया निश्चित तौर पर वह अनुकरणीय है। इस समुदाय के लोग न सिर्फ अपनी कला, संस्‍कृति और बोली को संजोए रखने के लिए निरंतर प्रयासरत हैं, बल्कि इनका परस्‍पर सहयोग और सामाजिक सहभागिता हर समाज के लिए प्रेरणादायक है। इतना ही नहीं ये देश की सीमा पर तैनात एक तरह से अवैतनिक प्रहरी हैं, जाे सरकार के लिए आंख-कान की तरह काम करते हैं। तो चलिए जानते हैं रं समुदाय के बारे में।

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रं समुदाय के लोगों को कहा जाता है भोटिया

चीन और नेपाल सीमा पर उच्च और उच्च मध्य हिमालय की तीन घाटियों दारमा, व्यास और चौदास के मूल निवासियों को जिन्हें आज सरकारी तौर पर भोटिया कहा जाता है ये ही रं लोग हैं। रं समाज के लोग अपनी कला, जीवट, व्यापार, संस्कृति, लोकजीवन को लेकर अपनी अलग पहचान रखते हैं। अतीत में तिब्बत में व्यापार करने वाले रं समाज के लोगों ने वर्ष 1962 के भारत चीन युद्ध के बाद काफी दुर्दिन झेले हैं। इससे पूर्व तिब्बत व्यापार में इस समाज के लोग काफी आगे थे। विषम भौगोलिक परिस्थिति में जीवन जीने वाले रं लोग भारत चीन युद्ध के बाद आजीविका विहीन हो गए थे, परंतु समाज के लोगों ने हार नहीं मानी। शिक्षा के प्रति अपनी अभिरुचि बढ़ा आज वे सरकारी महकमों में ऊंचे ओहदों पर तैनात हैं। सबसे बड़ी विशेषता यह है कि देश, विदेश में कहीं भी रहे, परंतु अपने समाज, बोली, भाषा और लोकजीवन नहीं छोड़ते हैं।

आपसी बातचीत के लिए करते हैं रं बोली का प्रयोग

रं लोगों की बोली, भाषा, संस्कृति की अपनी अलग पहचान है। सीमांत जिले में इनकी जनसंख्या दस हजार के आसपास है। रं समुदाय के लोग अपनों के बीच रं बोली के जरिए ही बातचीत करते हैं। संख्या की दृष्टि से काफी कम होने के बाद अपनी भाषा और संस्कृति को बचाने का इनका प्रयास सराहनीय रहा है। रं बोली एक भाषा का रूप ले सके, उसकी लिपि तैयार हो, अस्सी के दशक से इसके लिए तेजी से प्रयास हुआ। इस समाज के व्यापारी नंदराम ने तब रं लिपि तैयार करने वाले को एक लाख रुपये इनाम देने की घोषणा की थी।

मकर सिंह ने तैयार कि रं लिपि

इस घोषणा पर गर्ब्‍यांग गांव के मकर सिंह गर्ब्‍याल ने रं लिपि तैयार की। इसके बाद समाज के कई लोग आगे आने लगे। अपनी बोली, भाषा में ही बात होने लगी। वर्तमान में सोशल मीडिया में भी रं समाज के लोग अपनी बोली भाषा का ही प्रयोग करते हैं। इसके लिए वाट्सएप ग्रुप बनाया गया है, जिसे रं भाषा में रंग्लौ कहा जाता है। वाट्सएप में ही चर्चा परिचर्चा होती है। गोपाल सिंह ने रं भाषा के विकास के लिए अपनी पुत्री संदेशा रायपा को इसके लिए प्रेरित किया, जो इस दिशा में प्रयासरत हैं। आज इसी का परिणाम है कि रं भाषा का जिक्र खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया। वर्तमान में रं कल्याण संस्था कार्यरत है, समुदाय के उत्थान से लेकर अपनी संस्कृति से रं लोगों को जोडऩे का कार्य कर रही है।

सीमा के अवैतनिक प्रहरी हैं रं लोग

वर्ष 1962 में जब भारत चीन युद्ध हुआ, तब रं समाज के लोगों ने भारतीय फौजों के लिए खुद सामग्री ढोई थी। तब धारचूला से लिपूलेख तक पैदल मार्ग बेहद खराब था। धारचूला से यहां पहुंचने तक चार से पांच दिन लगते थे। रं लोगों ने भारतीय फौज के लिए अपनी पीठ पर धारचूला से गोला, बारूद ढोया था। इस विषम परिस्थितियों में भी अपने गांव नहीं छोड़े, बल्कि इन्हें आबाद रख जवानों के लिए खाना बनाया था। यहां तक कि जवानों के साथ मिलकर लडऩे को तैयार रहते थे।

दो सौ साल पुराने पहनावा संरक्षित

रं समाज के लोगों का विशेष आयोजनों, धार्मिक अनुष्ठानों पर  पहनावा अलग रहता है। इस समाज में स्वागत नौ मीटर मखमली सफेद रंग के कपड़े की पगड़ी पहनाकर होता है। इसे रं बोली में रंगाव्यठलो कहते हैं। वहीं महिलाओं के परिधान को च्यूबाला कहते हैं। पुरु ष को रं और महिला को रमस्या कहते हैं। आज भी गांवों में दो सौ साल पुराने परिधान मिलते हैं।

इन गांवों में रहते हैं रं लोग

व्यास घाटी - बूंदी, गर्ब्‍यांग, गुंजी, नाबी, रोंगकोंग, नपलच्यु, कुटी ।

दारमा घाटी- दर  बौगलिंग, सेला, चल, बालिंग, नागलिंग, दुग्तू, दांतू, बौन, ढाकर, तिदांग, सीपू ,सौन, गो , विदांग ।

चौदास घाटी : पांगू, धारपांगू, छलमाछिलासो, सोसा, सिर्खा, रूंग, हिमखोला, सिमखोला, सिर्दांग।  इसके अलावा नेपाल के छांगरु , टिंकर आदि गांव हैं। दारमा और व्यास घाटी के ग्रामीण साल में दो बार माइग्रेशन करते हैं। शीतकाल जौलजीवी से धारचूला और ग्रीष्म से मानसून काल उच्च हिमालयी गांवों में व्यतीत करते हैं।

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