तल्ला जोहार के चार गांवों में शुरू हुआ खुदा पूजन, होती है अलखनाथ की वंदना, जानिए कैसे नाम पड़ा "खुदा पूजा"
औरंगजेब के शासन काल में जब उसके गुप्तचर यहां तक पहुंचे तो ग्रामीणों ने अपनी पूजा को छिपकर और लोगां से बचाकर की। गुप्तचरों द्वारा पूजा के बारे में पूछे जाने पर ग्रामीणों ने इसे खुदा की पूजा बताया। तब से इसका नाम खुदा पूजा हो गया।
जागरण संवाददाता, नाचनी (पिथौरागढ़) : विकास खंड मुनस्यारी के विभिन्न गांवों में खुदा पूजा प्रारंभ््रा हो चुकी है। विकास खंड के चार गांवों में इस बार खुदा पूजा हो रही है। खुदा पूजा को लेकर ग्रामीणों में उत्साह बना हुआ है। खुदा पूजा के नाम से होने वाली यह पूजा भगवान शिव के अलखनाथ और महाकाली की पूजा है। पूरी पूजा छिपकर की जाती है। रात के अंधेरे में मकान के सबसे ऊपरी मंजिल में पूजा का आयोजन किया जाता है। अमूमन इस पूजा में बाहरी लोगोंं को नहीं आने दिया जाता है। पूजा के विधि विधान के लिए पवित्र पदम के वृक्ष का विशेष महत्व माना जाता है। पूजा शुभ घड़ी में हुई हो तो जिस समय पदम के वृक्ष पर देवडांगर अवतरित होते हैं उस समय यदि आसमान में गरु ड़ पक्षी नजर आएं तो इसे सफल होना माना जाता है।
खुदा पूजा ग्रामीणों की आर्थिक स्थिति को देखते हुए तीसरे, पांचवे, सातवें और बारहवें वर्ष में होती है। आर्थिक सम्पन्नता वाले लोग प्रति तीसरे वर्ष भी पूजा का आयोजन करते हैं। इस बार तल्ला जोहार के रांथी गांव, सेलमाली, डोकुला और कोट्यूड़ा गांव में हो रही है। तीन से चार दिन तक होने वाली इस पूजा के कार्यक्रम रात्रि को होते हैं। खुदा पूजा के लिए सारे नाते रिश्तेदार बुलाए जाते हैं जिस कारण पूरा कुनबा एकत्रित होता है। चार गांवों में पूजा प्रारंभ हो चुकी है। अन्य गांवों मे भी पूजा का आयोजन होना है।
खुदा पूजा नाम को लेकर अलग -अलग तर्क
मुनस्यारी के इस सीमांत क्षेत्र में ग्रामीण अलखनाथ और महाकाली की पूजा विशेष श्रद्धा के साथ सदियों से करते आ रहे हैं। इसे अलखनाथ पूजा कहा जाता है। स्थानीय लोगों के अनुसार मुगल काल में औरंगजेब के शासन काल में जब उसके गुप्तचर यहां तक पहुंचे तो ग्रामीणों ने अपनी पूजा को छिपकर और लोगां से बचाकर की। गुप्तचरों द्वारा पूजा के बारे में पूछे जाने पर ग्रामीणों ने इसे खुदा की पूजा बताया। तब से इसका नाम खुदा पूजा हो गया। तब से आज तक ग्रामीण अलखनाथ और महाकाली की पूजा को मकान के ऊपरी मंजिल के कमरे या फिर कुछ वर्षों पूर्व तक गांव में छोड़े गए मकान या खंडहर बन चुके मकान में करते थे। अब इस पूजा का नाम एक बार फिर से अलखनाथ पूजा के रू प में प्रचलित होने लगा है।
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