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रंगों के पर्व ने पहाड़ के समाज को एक सूत्र में पिरोया, गुड़ बांटने की है अनूठी परंपरा

पहाड़ में होली ने समाज को एक सूत्र में ही नहीं बांधा बल्कि सामाजिक मांगलिक तथा निजी आयोजनों में आम जरूरतों को पूरा करने में भी अहम भूमिका निभाई है।

By Skand ShuklaEdited By: Published: Thu, 21 Mar 2019 10:23 AM (IST)Updated: Thu, 21 Mar 2019 05:14 PM (IST)
रंगों के पर्व ने पहाड़ के समाज को एक सूत्र में पिरोया, गुड़ बांटने की है अनूठी परंपरा
रंगों के पर्व ने पहाड़ के समाज को एक सूत्र में पिरोया, गुड़ बांटने की है अनूठी परंपरा

नैनीताल, जेएनएन : पहाड़ में होली ने समाज को एक सूत्र में ही नहीं बांधा, बल्कि सामाजिक, मांगलिक तथा निजी आयोजनों में आम जरूरतों को पूरा करने में भी अहम भूमिका निभाई है। पहाड़ के दूरस्थ क्षेत्रों में आज भी होली पर गुड़ व हलवा बांटने की अनूठी परंपरा कायम है।

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सुविधाओं की कमी की वजह से खाली होते पहाड़ के गांवों में रीति-रिवाज व परंपराएं आज भी आधुनिकतावादी दृष्टिïकोण वालों आइना दिखा रही हैं। रंगों के पर्व पर पहाड़ के गांव में होली गायन समाज को एक सूत्र में पिरोता रहा है। बदलते परिवेश में जब सयानों की बात सुनने वाले समाज के साथ ही परिवारों में भी घट रहे हैं, ऐसे में होली पर कार्यक्रमों के आयोजनों में बुजुर्गों की ओर से स्थापित परंपराएं नई पीढ़ी को भी अपने अतीत की धरोहर व स्थापित मूल्यों को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित कर रही हैं। पर्वतीय क्षेत्र के गांवों में होली पर होल्यारों को गुड़ बांटने का रिवाज दशकों से चला आ रहा है। गांवों में घर में शुभ कार्य शादी विवाह, जनेऊ संस्कार आदि मांगलिक कार्य, संतान उत्पत्ति, नया घर बनाने, नौकरी लगने जैसे खुशी के अवसर पाने वाला परिवार गुड़ की भेली प्रदान करता है। छलड़ी की शाम को होने वाली टीका की होली के बाद सामूहिक रूप से मंदिर या सार्वजनिक स्थान पर होल्यारों को गुड़ व हलवा बांटा जाता है। काली कुमाऊं में तो होलिका दहन के दौरान होल्यारों में दूसरे गांव को चिढ़ाने की भी परंपरा है।

होली कमेटियां गांव के लिए जुटाती हैं कोष

पहाड़ के गांवों में होली कमेटियां होली के दौरान होने वाले विवादों का न सिर्फ समाधान करती हैं, बल्कि ये कमेटियां गांव की जरूरतों के लिए कोष भी जुटाती हैं। होली के समापन पर कमेटी की ओर से तय धनराशि प्रत्येक घर को दी जाती है। मांगलिक कार्य वाले परिवार को अन्य से दोगुना देना होता है। सामूहिक चंदे से एकत्र धनराशि से कमेटियां गांव के सार्वजनिक आयोजन के साथ ही शादी ब्याह, जनेऊ संस्कार, नामकरण, पुण्यतिथि, मंदिरों में कथा व अन्य धार्मिक आयोजनों के लिए बर्तन व अन्य सामान जुटाया जाता है।

होली में आर्थिक भेद भी खत्‍म हो जाते हैं

प्रो. भगवान सिंह बिष्ट, समाजशास्त्री ने बताया कि पहाड़ के परंपरागत ग्रामीण समाज की हमेशा से ही सामाजिक, धार्मिक व आर्थिक सहकारिता की सोच रही है। होली में आर्थिक भेद भी खत्म हो जाता है। सांस्कृतिक समरूपता होती रही है। होली कमेटियां सामाजिक सौहार्द की प्रतीक हैं। जब तक समाज की व्यवस्था रहेगी, इस तरह की परंपराएं हमेशा बनी रहेंगी।

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