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हाईकोर्ट ने राज्‍य सरकार को दिया झटका, वनों की नई परिभाषा पर लगाई रोक nainital news

उत्तराखण्ड हाइकोर्ट ने दस हेक्टेयर से कम क्षेत्र में फैले या 60 प्रतिशत डेंसिटी वाले वन क्षेत्र को ही जंगल मानने की नई परिभाषा के मामले में राज्‍य सरकार को बड़ा झटका दिया है।

By Skand ShuklaEdited By: Published: Tue, 10 Dec 2019 12:43 PM (IST)Updated: Wed, 11 Dec 2019 10:34 AM (IST)
हाईकोर्ट ने राज्‍य सरकार को दिया झटका, वनों की नई परिभाषा पर लगाई रोक nainital news
हाईकोर्ट ने राज्‍य सरकार को दिया झटका, वनों की नई परिभाषा पर लगाई रोक nainital news

नैनीताल, जेएनएन : उत्तराखण्ड हाइकोर्ट ने दस हेक्टेयर से कम क्षेत्र में फैले या 60 प्रतिशत डेंसिटी वाले वन क्षेत्र को ही जंगल मानने की नई परिभाषा के मामले में सरकार को बड़ा झटका दिया है। कोर्ट ने इस आदेश पर रोक लगा दी है। साथ ही केंद्र सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के महानिदेशक को इस तरह के मनमाफिक आदेश जारी करने पर प्रतिबंध लागने के साथ ही राज्य व केंद्र शासित प्रदेशों को बाज आने की चेतावनी दी है। डीजी के इस आदेश के बाद राज्य सरकार इस मामले में बैकफुट पर आ गई है। कोर्ट अगली सुनवाई दो जनवरी को करेगा।

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पर्यावरणविद प्रो. रावत ने दायर की है याचिका

मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रमेश रंगनाथन व न्यायमूर्ति आलोक कुमार वर्मा की खंडपीठ में नैनीताल निवासी पर्यावरणविद प्रो अजय रावत की जनहित याचिका पर सुनवाई हुई। जिसमें कहा गया है कि 21 नवम्बर 2019 को उत्तराखंड के वन एवं पर्यावरण अनुभाग ने एक आदेश जारी किया है, जिसके तहत कि उत्तराखंड में जहां दस हेक्टेयर से कम या 60 प्रतिशत से कम घनत्व वाले वन क्षेत्र हैं उन वनों को उत्तराखंड में लागू राज्य एवं केंद्र की वर्तमान विधियों के अनुसार वनों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है या उनको वन नहीं माना जा सकता।

इसलिए हो रहा है आदेश का विरोध

याचिकाकर्ता का कहना है कि यह आदेश एक कार्यालयी आदेश है यह लागू नहीं किया जा सकता है क्योंकि न ही यह साशनादेश न ही यह कैबिनेट से पारित है। सरकार ने इसे अपनों को फायदा देने के लिए जारी किया हुआ है। याचिकाकर्ता का यह भी कहना है कि फारेस्ट कन्जर्वेशन एक्ट 1980 के अनुसार प्रदेश में 71 प्रतिशत वन क्षेत्र घोषित हैं जिसमे वनों की श्रेणी को भी विभाजित किया हुआ है, परन्तु इसके अलावा कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जिनको किसी भी श्रेणी में घोषित नहीं किया गया है । इन क्षेत्रों को भी वन क्षेत्र की श्रेणी सामिल किया जाए और इनके दोहन या कटान पर रोक लग सके।

ये है सु्प्रीम कोर्ट की गाइडलाइन

सुप्रीम कोर्ट ने 1996 के अपने आदेश गोडा वर्मन बनाम केंद्र सरकार में कहा है कि कोई भी वन क्षेत्र चाहे उसका मालिक कोई भी हो उनको वनों की क्षेत्र के श्रेणी में रखा जाएगा और वनों का अर्थ क्षेत्रफल या घनत्व से नहीं है। सरकार का यह आदेश इस और इंगित करता है कि ऐसे क्षेत्रों का दोहन कर अपने लोगो को लाभ पहुँच सके। दलीलों को सुनने के बाद खंडपीठ ने आदेश पर रोक लगाते हुए अगली सुनवाई के लिए दो जनवरी की तिथि निर्धारित की है।

यहा था राज्‍य सरकार का आदेश

दरअसल, सचिव वन एवं पर्यावरण अरविंद सिंह ह्यांकी की ओर से जंगलात की नई परिभाषा दी गई है, जिसे राज्यपाल ने भी बाकायदा मंजूरी दी है। इसके तहत उत्तराखंड में राजस्व रिकॉर्ड में अधिसूचित या उल्लिखित वन क्षेत्र जो 10 हेक्टेयर या 60 फीसद से अधिक घनत्‍व वाले क्षेत्र को वन मनाया जाएगा। विशेषज्ञों ने सवाल उठाया है कि क्या नई परिभाषा व मापदंड के आधार पर 10 हेक्टेयर व 60 फीसद से कम घनत्व वाले जंगलात 'वन' नहीं माने जाएंगे। अगर ऐसा है तो उत्तराखंड के जंगलात नष्ट होते देर न लगेगी।

इस तरह से कभी वन को नहीं परिभाषित किया गया

पर्यावरणविदों का कहना है कि वन की नई परिभाषा व मापदंड समझ से परे व भविष्य के लिए भी खतरनाक था। 10 हेक्टेयर का आंकड़ा किस अध्ययन से लाया गया, इसका कोई जिक्र ही नहीं है। यदि इससे कम क्षेत्रफल वाले जंगलात को वन नहीं माना गया तो वन पंचायतों का अस्तित्व पर संकट जाएगा। तब हमारा फॉरेस्ट कंजर्वेशन ऐक्ट भी कमजोर पड़ जाएगा। अब तक के इतिहास में इस तरह से वनों को कभी परिभाषित नहीं किया गया है। अगर नई परिभाषा पर अमल हुआ तो इससे नदियों से जुड़े जलस्रोत वाले जंगलात नष्ट होते जाएंगे।

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