.... इसलिए अब नहीं सुनाई देते 'कौआ काले कौआ काले' के सामूहिक स्वर nainital news
कुमाऊंनी कहावत है- नानतिनन लिभेरक त्यार मतलब बच्चे हैं तो त्योहार की रौनक है। कहावत और उसके मायने आज समझ आते हैं जब बचपन पीछे छूट चुका है। घुघुती त्यार बीत गया है।
हल्द्वानी, गणेश पांडे : कुमाऊंनी कहावत है- 'नानतिनन लिभेरक त्यार' मतलब बच्चे हैं तो त्योहार की रौनक है। कहावत और उसके मायने आज समझ आते हैं, जब बचपन पीछे छूट चुका है। घुघुती त्यार बीत गया है। बच्चों के गले में घुघते की माला देख खुद का बचपन याद जा जाता है। हम लोग कई दिन पहले से अंगुली पर घुघुतिया के दिन गिनने लगते। दिन कम होने के साथ खुशी बढ़ती जाती। ईजा को देख घुघुते बनाने लगते। रात में ही घुघुते की माला पिरो ली जाती। पांच-सात घुघुते की माला को ईजा लंबी डोरी में ऐसे पिरोती ताकि वह घुटनों तक पहुंच जाए। घुघुते की माला पहन पूरे मोहल्ले में घूमने का आनंद ही कुछ और होता है। सुबह-सुबह 'कौआ काले कौआ काले' के सामूहिक स्वर पलायन से अब कम हो गए हैं। कौआ को सबसे पहले अपनी छत पर बुलाने की प्रतिस्पर्धा अब नहीं होती।
सकारात्मक उम्मीद जगाती परंपरा
पहाड़ से पलायन कर शहर आ गए लोग खुद के साथ अपनी परंपराएं, संस्कृति और रीति-रिवाज भी लाए। उत्तरायणी कुमाऊं का परंपरागत पर्व है। घुघुती त्यार नाम से मनाया जाने वाला यह पर्व अपने विशिष्ट पकवान के साथ मेलों के लिए भी प्रसिद्ध है। उत्तरायणी याद आते ही बागेश्वर का मेला याद आता है। कुमाऊं के महानगर कहे जाने वाले हल्द्वानी में उत्तरायणी मेले की शुरुआत 1980 में हुई। मेले ने इस बार 40 साल पूरे कर लिए। मेला शुरू कराने से पीछे कई लोगों की मेहनत थी। पिछले कुछ वर्षों तक हीरानगर इकलौती ऐसी जगह थी जहां मेला हुआ करता था। पिछले तीन-चार वर्षों में हल्द्वानी में तीन-चार स्थानों पर उत्तरायणी कौतिक होने लगा है। हल्दूचौड़, लालकुआं व कालाढूंगी में भी मेले हो रहे हैं। मेलों के विस्तार ने लोक कलाकारों को मंच देने के साथ लोगों को अपनी पुरातन परंपरा से जुडऩे का मौका दिया है।
कौमी एकता का शहर
कुमाऊं का प्रवेश द्वार हल्द्वानी में सभी धर्मों के लोग रहते हैं। हिंदू, मुस्लिम व सिखों की अच्छी तादात है तो इसाई धर्म को मानने वाले भी कम नहीं हैं। सभी समाज के लोगों की अच्छी संख्या होने से शहर में वर्षभर धार्मिक आयोजन, मेले-महोत्सव, शोभायात्रा आदि होते रहते हैं। बीते दिवस उत्तरायणी मेले की शोभायात्रा निकली। कुमाऊंनी संस्कृति को दर्शाती शोभायात्रा का गैर हिंदुओं को स्वागत करते देखा गया। पिछले दिनों सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह जी के प्रकाशपर्व पर निकले नगर कीर्तन में मुस्लिम समाज के लोग पानी व सरबत की सेवा करते दिखे। ईद में मुबारकबाद देने के लिए मुस्लिमों के घर पहुंचने वाले गैर मुस्लिम लोग मीठी सेवई का स्वाद लेते हैं। ऐसे दौर में जब सोशल मीडिया पर धार्मिक उन्माद फैलाती पोस्ट दिखती हैं, ऐसे में कौमी एकता की डोर को मजबूत करते फोटोग्राफ को सोशल मीडिया में अपलोड करने का साहस सुकून पैदा करता है।
अतीत से रूबरू होने का उल्लास
ओखली और हाथ की चक्की (जातर) कुमाऊं के लोक जीवन से गहराई से जुड़ी रही है। ये अलग बात है कि अब इन दोनों का अस्तित्व लगभग खत्म हो गया है। पहाड़ की महिलाओं के श्रम को दर्शाती ओखली व जातर कुमाऊं की पहचान से भी जुड़े रहे हैं। सामूहिक रूप से ओखल कूटती महिलाओं के चित्र यदाकदा सोशल मीडिया पर शेयर होते हैं तो आज भी हमें लुभाते हैं। अनाज पीसने या दलने के लिए उपयोग में आने वाली जातर की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। हालांकि शुभ अवसरों पर शगुन के तौर पर ओखली व जातर का प्रयोग आज भी होता है। पहाड़ छोड़ हल्द्वानी में ठौर पा चुकी नई पीढ़ी उत्तरायणी मेले में निकलने वाली शोभायात्रा के जरिये ओखल व जातर से रूबरू होती है। नई पीढ़ी का अपने अतीत से रूबरू होने का उल्लास देखने लायक होता है।
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