कोरोना काल ने नॉन कोविड मरीजों की मुश्किलें बढ़ींं, निजी अस्पताल एडमिट करने से बचे रहे तो सरकार में सुविधाएं नहीं
अव्यवस्था के चलते कोरोनाकाल में नॉन कोविड मरीजों की परेशानी बढ़ गई है। अब कोविड के डर से निजी अस्पताल जहां गंभीर मरीजों को भर्ती करने में अनाकानी कर रहे हैं वहीं कुमाऊं का सबसे बड़ा सुशीला तिवारी कोविड अस्पताल बना गया।
हल्द्वानी, जेएनएन : अव्यवस्था के चलते कोरोनाकाल में नॉन कोविड मरीजों की परेशानी बढ़ गई है। जहां ऐसे मरीज पहले सरकारी से लेकर निजी अस्पतालों में आसानी से इलाज करा लेते थे, वहीं अब कोविड के डर से निजी अस्पताल जहां गंभीर मरीजों को भर्ती करने में अनाकानी कर रहे हैं वहीं कुमाऊं का सबसे बड़ा सुशीला तिवारी कोविड अस्पताल बना गया। ऐसे में मरीजों के लिए बेस व महिला अस्पताल ही सहारा है। लेकिन इनमें पर्याप्त सुविधाएं न होने के कारण मरीजों को समुचित इलाज नहीं मिल पा रहा है। स्वास्थ्य विभाग व प्रशासनिक खामियों के चलते आम मरीज दर-दर की ठोकरें खाते हुए दम तोड तोड़ दे रहे हैं। पढ़ें जागरण की ये खास रिपोर्ट।
केस एक
रामनगर के एक कैशियर के हृदय में दर्द हुआ। परिजन उसे 28 अगस्त को शहर के एक बड़े निजी अस्पताल में ले गए, लेकिन अस्पताल ने पहले कोरोना जांच कराने की बात कहकर इलाज करने से मना कर दिया। मरीज को एसटीएच ले गए, लेकिन उसकी मौत हो गई थी।
केस दो
अगस्त प्रथम सप्ताह का मामला है। शहर के एक बड़े व्यापारी को भी हार्ट अटैक पड़ा था। परिजन इस मरीज को भी निजी अस्पताल में ले गए थे। जबकि पहले से भी उसी अस्पताल में इलाज कराते थे, लेकिन संकट के समय डॉक्टर ने कोरोना जांच के बाद ही इलाज करने की बात कही। परिजन एसटीएच ले आए। समय पर इलाज के अभाव में मरीज ने मद तोड़ दिया।
केस तीन
10 सितंबर को शहर की महिला गंभीर हालत में निजी अस्पताल के बाहर तड़पती रही। भर्ती कराने को लेकर गिड़गिड़ाती रही। पर किसी का दिल नहीं पसीजा। मरीज को एसटीएच ले जाने को कह दिया गया। कोविड की आशंका के बीच परिजन मजबूरी में मरीज को एसटीएच ले गए, लेकिन कुछ दिनों बाद वह भी चल बसी।
रिपोर्ट न आने वाली जांच का क्या औचित्य
डीएम ने प्राइवेट अस्पतालों में इलाज के अभाव में दम तोडऩे वाले प्रकरणों की जांच के आदेश दिए थे। लापरवाही के चलते पहले कई मरीजों की जान चले गई। इसके बाद जांच कमेटी बनाई गई। एसटीएच के प्रकरणों के तरह ही रिपोर्ट न आने वाली जांच का कोई औचित्य नहीं है।
टीम भी टांय-टांय फिस्स हो गई
एसटीएच को कोविड अस्पताल बनाए जाने के बाद जिला प्रशासन ने गरीब मरीजों को निजी अस्पताल में इलाज कराने का दावा किया। टीम भी गठित की। एक-दो सप्ताह तक टीम सक्रिय दिखी, लेकिन बाद में टांय-टांय फिस्स हो गया। निजी अस्पतालों ने रुचि नहीं दिखाई और जिला प्रशासन के जिम्मेदार अधिकारियों ने भी पल्ला झाड़ लिया।
ट्रूनेट मशीन आई लेकिन टेक्नीशियन का पता नहीं
बेस अस्पताल में कोरोना जांच के लिए ट्रूनेट मशीन इंस्टॉल हो गई है, लेकिन अभी तक जांच कौन करेगा? इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है। यही हाल ब्लड कंपोनेंट सेपरेटर का है। यह मशीन भी इंस्टॉल हो चुकी है। प्रमुख चिकित्सा अधीक्षक डॉ. हरीश लाल का कहना है कि लैब टेक्नीशियन व लैब सहायक की नियुक्ति के लिए डीएम को प्रस्ताव भेजा गया है।
हार्ट के डॉक्टर नहीं, न्यूरो का ऑपरेशन नहीं
एसटीएच में न्यूरोसर्जन तो हैं, लेकिन वहां पर कोविड अस्पताल के चलते ओपीडी बंद है। बेस अस्पताल में कभी-कभी ओपीडी तो होती है, लेकिन न्यूरो से संबंधित ऑपरेशन की सुविधा नहीं है। हार्ट स्पेशलिस्ट नहीं होने की वजह से गरीब मरीज कहां इलाज कराएंगे? बेस में आइसीयू व एचडीयू भी महज औपचारिकता भर के लिए है। इसके बारे में स्वास्थ्य विभाग से लेकर जिला प्रशासन ने कोई व्यवस्था नहंी की। मरीज इधर-उधर भटकने को विवश हैं।
एसटीएच में 1500 की होती थी ओपीडी
कोरोनाकाल से पहले एसटीएच में प्रतिदिन 1500 से अधिक लोग प्रतिदिन ओपीडी में पहुंचते थे, लेकिन सात महीने से ओपीडी बंद है। ऑपरेशन भी नहीं हो रहे हैं। बेस अस्पताल में 500 मरीजों की ओपीडी है, लेकिन ऑपरेशन प्रतिदिन पांच-छह ही हो रहे हैं। कोविड अस्पताल के चलते लोग एसटीएच इलाज कराने नहीं जा सकते हैं। ऐसे में इन मरीजों की क्या फजीहत हो रही है, इस बारे में जिम्मेदार अधिकारियों ने आंखें मूंद रखी हैं।