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रानीखेत में जापानी तकनीक मियावाकी से पर्यावरण प्रेमी जंगल को दे रहे हैं व‍िस्‍तार

। वन अनुसंधान केंद्र कालिका (रानीखेत) के शोधार्थियों ने जापानी तकनीक मियावाकी से मानव निर्मित जंगलात को विस्तार देकर भविष्य की सुनहरी तस्वीर पेश की है।

By Skand ShuklaEdited By: Published: Sat, 12 Sep 2020 11:20 AM (IST)Updated: Sat, 12 Sep 2020 11:20 AM (IST)
रानीखेत में जापानी तकनीक मियावाकी से पर्यावरण प्रेमी जंगल को दे रहे हैं व‍िस्‍तार
रानीखेत में जापानी तकनीक मियावाकी से पर्यावरण प्रेमी जंगल को दे रहे हैं व‍िस्‍तार

अल्मोड़ा, जेएनएन : उत्तराखंड में घटते वन क्षेत्रों विस्तार देने की मुह‍िम तेज हो गई है। वन अनुसंधान केंद्र कालिका (रानीखेत) के शोधार्थियों ने जापानी तकनीक 'मियावाकी' से मानव निर्मित जंगलात को विस्तार देकर भविष्य की सुनहरी तस्वीर पेश की है। चीड़ बहूल जंगलात में वर्ष 2018 में 0.25 हेक्टेयर में स्थानीय वनस्पति प्रजातियों के 3339 पौधे लगाए अभिनव प्रयोग की शुरूआत की थी। अबकी बरसात 0.75 हेक्टेयर का नया वन क्षेत्र तैयार कर लिया गया है।

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दरअसल, रानीखेत के कालिका वन रेंज में वर्ष 2018 में 0.25 हेक्टेयर में स्थानीय बहुपयोगी प्रजातियों का जंगलात तैयार करने का काम शुरू हुआ। प्रयोग के तौर पर बीते वर्ष 3339 पौधे लगाए गए। इनमें झाड़ी व वृक्षों की 33 प्रजातियां हैं। खास बात कि सभी ने जड़ें जमा ली हैं और वि‍कास भी बेहतर है। कुमाऊं में वन विभाग का रानीखेत के कालिका में जापानी तकनीक से तैयार किया गया यह पहला जंगल है।

अबकी 9000 नए पौधे लगाए गए

वन अनुसंधान केंद्र कालिका के पर्यावरण प्रेमी अब बरसात में नई जमीन पर नए पौधे लगाने की तैयारी मेें जुट गए हैं। वनाग्नि के जनक चीड़ के जंगल में खाली पड़ी भूमि पर .75 हेक्टेयर क्षेत्र को पौधरोपण के लिए तैयार कर लिया गया है।

क्या है मियावाकी तकनीक

माना जाता है कि जापान के पर्यावरणविद् डॉ. मियावाकी ने करीब 40 वर्ष यह तकनीक तैयार की। इसकी खासियत यह है कि संबंधित जमीन पर वहीं की स्थानीय वनस्पति प्रजातियों को बढ़ावा दिया जाता है। ताकि माकूल आबोहवा, जलवायु, मौसम व मृदा इन पौधों के विकास में मददगार बन सकें। इसमें बढ़वार जहां तेजी से होती है वहीं पौधों के मरने की आशंका बिल्कुल नहीं रहती। यानी जितने पौधे लगाएंगे सभी लगभग जिंदा रहते हैं। इस तकनीक के तहत पहले गड्ढे खोदकर कुछ महीने के लिए छोड़ दिए जाते हैं। फिर उसमें दालों, गोबर व भूसे से बनी जैविक खाद देकर पौधे लगाए जाते हैं।

तीन प्रक्रियाओं से गुजरती है तकनीक

  • पहला सामान्य प्रक्रिया मसलन जनवरी फरवरी में गड्ढे खोदकर छोड़ देना, फिर बरसात में पौधरोपण
  • दूसरा, पौधों को जैविक तकनीक से गोमूत्र, गोबर, चना दाल, दीमक वाली मिट्टी, गुड़, आदि से बने जीवामृत ( जैविक खाद का तरल रूप) में डुबा कर पौधरोपण।
  • तीसरे में पौधरोपण कर जीवामृत का छिड़काव ताकि बढ़वार बेहतर हो सके।

कारगर साब‍ित हुई जापानी तकनीक

शोध अधिकारी वन अनुसंधान केंद्र कालिका रानीखेत राजेंद्र प्रसाद जोशी ने बताया कि मियावाकी तकनीक से अभिनव प्रयोग ने कामयाबी की ओर कदम बढ़ा लिए हैं। इससे घटते वन क्षेत्रों का घनत्व बढ़ाने की नई उम्मीद जगी है। हिमालयी राज्य में वनाग्नि व अनियोजित विकास से खत्म हो रहे जंगलों को बचाने के लिए यह तकनीक कारगर साबित हो रही है। कुमाऊं का पहला वन क्षेत्र विकसित कर इस मॉडल को अन्य हिमालयी राज्यों में अपनाने के लिए प्रेरित करेंगे।


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