कुमाऊं में आज आ होती है बैल की पूजा, सींग, पूंछ व कमर में होती है तेल से मालिश
कुमाऊं के ग्रामीण अंचलों में दीपावली के 11 दिन बाद एकादशी को बैल का पर्व मनाने की परंपरा रही है। शुभ मुहूर्त के अनुसार बैल या बछड़े की खील बताशे से पूजा अर्चना के बाद पूरी पकवान खिलाया जाता है।
नैनीताल, जेएनएन : कुमाऊं के ग्रामीण अंचलों में दीपावली के 11 दिन बाद एकादशी को बैल का पर्व मनाने की परंपरा रही है। शुभ मुहूर्त के अनुसार बैल या बछड़े की खील बताशे से पूजा अर्चना के बाद पूरी पकवान खिलाया जाता है। यह त्यौहार पहाड़ में खेती-किसानी के साथ ही पशुपालन के सशक्त होने व पशुओं के प्रति प्रेम का प्रतीक रहा है।
कुमाऊं के ग्रामीण अंचलों में पशुपालन कभी शौक के साथ ही समृद्धि का प्रतीक था। 90 के दशक के बाद पलायन ने रफ्तार पकड़ी और आधुनिकता का रंग चढा तो इसका असर खेती किसानी व पशुपालन पर नकारात्मक पड़ा। एकादशी या एक्काशी त्यार को बच्चे और युवा बैलों के सींग में कपड़े या भांग के रेशे से बने मुझयाड़ लगाते हैं।जबकि डोरी को रंगने के बाद बैल के गले में घंटी बांधते हैं।
90 के दशक तक इस पर्व का बेसब्री से इंतजार रहता था। तब पूजा अर्चना के बाद बैलों की पर्व पर खूब लड़ाई भी होती थी। अब नए दौर में बैलों के बजाय मिनी ट्रेक्टर से जुताई तथा खेती किसानी सिमटी तो बैलों की संख्या घटती गई। वर्तमान में आलम यह है कि कभी हर घर में बैल की जोड़ी पालने वाले गांवों में एक भी बैल नहीं है।
सिमट रहा है पशुपालन
सरकार के दावों के इतर गांव खाली हुए तो खेत-खलिहान बंजर में तब्दील हो गए। पशुपालन भी निरंतर सिमटता चला गया। 2012 और 2019 की पशुगणना के आंकड़े इसकी तस्दीक करते हैं। इस साल जारी पशुगणना के अनुसार राज्य में 2012 के मुकाबले 2019 में गोवंश में 7.95 फीसद की कमी आई। भेड़ और सूकर पालन में भी क्रमश: 22.82 और 11.29 फीसद की गिरावट आई। बकरीपालन में 0.33 फीसद और कुक्कुट पालन में 8.12 फीसद की वृद्धि हुई। संस्कृति कर्मी व परंपरा संस्था के संस्थापक बृजमोहन जोशी बताते हैं की पहाड़ में बूढ़ी दीपावली को बैल का त्यौहार मनाने की परंपरा चंद वंश से ही रही है।