प्रयोगवादी सिनेमा के करीब आते जा रहे हैं दर्शक, पढ़िए पूरी खबर
दर्शकों को अब प्रयोगवादी सिनेमा ज्यादा पसंद आता है। क्योंकि उसे जड़ताओं की बजाय बदलाव पसंद है।
देहरादून, दिनेश कुकरेती। एक आम दर्शक की नजर से देखें तो सिनेमा विशुद्ध मनोरंजन है। वह सिनेमा हॉल सिर्फ इसलिए जाता है कि अपनी थकानभरी जिंदगी में कुछ घंटों का सुकून तलाश सके। इसलिए उसे मसाला फिल्में ज्यादातर रास आती हैं। लेकिन, एक जागरूक दर्शक की सोच इस सबसे हटकर है। वह मसाला फिल्मों को भी पसंद करता है, पर खुद को इनसे जोड़ना उसे पसंद नहीं। उसे जड़ताओं की बजाय बदलाव पसंद है। वह चाहता है कि सिनेमा समाज का मार्गदर्शक बने, इसलिए उसे प्रयोगवादी सिनेमा ज्यादा पसंद आता है। इसकी झलक हमें दून में जेएफएफ के तहत दूसरे दिन प्रदर्शित फिल्मों में देखने को मिली।
फेस्टिवल में शनिवार को दिखाई गई अनिल कपूर रेट्रोस्पेक्टिव 'राम-लखन' को छोड़कर बाकी सभी फिल्मों के विषय लीक से हटकर हैं। खासकर, विश्व सिनेमा का हिस्सा बन चुकी 'द आयरिश प्रिजनर', 'चिंटू का बर्थडे' और 'बंकर' एक चिंतनशील व्यक्ति की सोच को समाज के सामने लाने का काम करती हैं। शॉर्ट फिल्म 'आपके आ जाने से', 'द वॉल', 'लेटर्स' और 'मील' समाज के उस द्वंद्व को उभारती हैं, जो हमारे अंतर्मन को झकझोरता तो है, लेकिन व्यापक स्तर पर उसकी अभिव्यक्ति से परहेज भी करता है। हालांकि, अच्छी बात यह है कि समय के साथ दर्शक की इस दृष्टि में बदलाव आया है।
सोचिए, क्या बर्थडे मनाना इतना गंभीर विषय है कि इस पर फिल्म बना डाली जाए। लेकिन, जब ईराक जैसे युद्धग्रस्त देश में खौफनाक मंजर के बीच कोई भारतीय परिवार बच्चे का जन्मदिन मनाने पर आमादा हो तो यह निश्चित रूप से कहानी का विषय बन जाता है। फिल्म 'चिंटू का बर्थडे' बिहार के एक ऐसे ही परिवार की कहानी है। गुजरे दौर में आप इसे निर्देशक का दुस्साहस भरा कदम ठहराने में हिचक महसूस नहीं करते, लेकिन वर्तमान में यह सामान्य-सी बात प्रतीत होती है।
यह भी पढ़ें: वर्ष 1917 में अर्जेंटीना ने दी दुनिया की पहली एनिमेटेड फिल्म, जानिए
वैसे इस सबके पीछे एक बड़ी वजह सिनेमा का मोबाइल पर आ जाना भी है। वेब सीरीज 'गर्ल्स हॉस्टल' इसका उदाहरण है। दो-ढाई दशक पूर्व तक कम-से-कम भारत में तो किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि लड़कियों को लेकर इस बिंदास अंदाज में सिनेमा बनेगा। जबकि, लड़कियों के हॉस्टल का यह सामान्य घटनाक्रम है। लेकिन, वर्तमान में निर्देशक इसे जोखिम का विषय नहीं मानता तो निश्चित रूप से इसे समाज के बदले हुए नजरिये का सूचक माना जाना चाहिए।
इस संपूर्ण परिदृश्य में हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सिनेमा ने सरोकारों के अर्थ भी बदले हैं। मसलन शिक्षा का अर्थ अब ज्ञान अर्जन से नौकरी की तलाश हो गया तो उधार का अर्थ कर्ज में डूबे होने से स्थिति और सम्मान में कमी से कई क्रेडिट कार्ड लेकर घूमना। कहने का मतलब थोड़े से अतिक्रमण से हमारा समाज बैंकरों का समाज या कारोबारी समाज बन गया है। हालांकि, हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इस तरह के प्लस-माइनस हर जगह हैं। हमें क्या स्वीकारना और क्या छोड़ना है, यह हमारी सोच पर निर्भर है। क्योंकि, निर्देशक भी कोई आसमान से उतरा जीव नहीं, बल्कि हमारे-आपके जैसा ही इंसान है।
यह भी पढ़ें: जागरण फिल्म फेस्टिवल का दून में भव्य आगाज, दर्शकों से रूबरू हुई दिव्या दत्ता