Move to Jagran APP

उत्तराखंडी खानपान में सनातनी व्यवस्था, पौष्टिक व्यंजन और लाजवाब जायका

सर्दियों में ठंड बढ़ने के साथ बीमारियां दस्तक देने लगती हैं। इसके लिए उत्तराखंड की बारहनाजा पद्धति में सनातनी व्यवस्था है। यहां पारंपरिक भोजन पूरी तरह पोषक तत्वों से परिपूर्ण है।

By Sunil NegiEdited By: Published: Sat, 20 Oct 2018 02:04 PM (IST)Updated: Fri, 02 Nov 2018 09:10 AM (IST)
उत्तराखंडी खानपान में सनातनी व्यवस्था, पौष्टिक व्यंजन और लाजवाब जायका
उत्तराखंडी खानपान में सनातनी व्यवस्था, पौष्टिक व्यंजन और लाजवाब जायका

देहरादून, [दिनेश कुकरेती]: शरद ऋतु का आगमन हो चुका है और आहिस्ता-आहिस्ता हम शीत की ओर बढ़ रहे हैं। यह ऐसा मौसम है, जब हमारी पाचन क्षमता दुरुस्त होने के कारण भोजन आसानी से पच जाता है। लेकिन, अधिक ठंड से होने वाली बीमारियों का भी भय बना रहता है। ऐसे में हमें जरूरत होती है शरीर को गर्म प्रदान करने वाले पौष्टिक आहार की। पहाड़ की बारहनाजा पद्धति में हमारे पूर्वजों ने इस दौरान मोटा अनाज के तैयार पारंपरिक व्यजंनों को खाने की सलाह दी है। हम उत्तराखंडी खानपान के इन्हीं पहलुओं से आपका परिचय करा रहे हैं।

loksabha election banner

सर्दियों के मौसम को खाने-पीने के लिहाज से सबसे बेहतरीन माना गया है। इस मौसम में जठराग्नि बहुत तेजी से काम करती है, जिसकी वजह से बहुत ज्यादा भूख लगती है। हम जो भी खाते हैं, पाचन क्षमता दुरुस्त रहने की वजह से वह आसानी से पच जाता है। लेकिन, सर्दियों में ठंड बढ़ने के साथ जहां सर्दी-जुकाम समेत अन्य बीमारियां दस्तक देने लगती हैं, वहीं सुस्ती और आलस की समस्या भी घेरे रहती है। ऐसे में हम आहार में शरीर को गर्मी प्रदान करने वाली चीजों को शामिल कर स्वयं को स्वस्थ रखने के साथ चुस्त-दुरुस्त भी रख सकते हैं। पर, असल सवाल यही है कि आखिर हमारा आहार कैसे हो। इसके लिए उत्तराखंड की बारहनाजा पद्धति में सनातनी व्यवस्था है। यहां लोगों का पारंपरिक भोजन पूरी तरह सतुलित व पोषक तत्वों से परिपूर्ण है। वजह यह कि इसमें सभी मोटे अनाज शामिल हैं। एक प्रकार से यह 'बैलेंस डाइट' है। हालांकि, एक दौर में लोग पारंपरिक भोजन से दूरी बनाने लगे थे, लेकिन अब वे फिर से पारंपरिक भोजन का महत्व समझने लगे हैं।

पौष्टिक व्यंजन और लाजवाब जायका

उत्तराखंड में कहीं पहाड़, कहीं मैदान, कहीं उपजाऊ तो कहीं ऊसर भूमि है। यहां का वातावरण भी ठंडा है। इन्हीं विविधताओं के अनुसार यहां के भोजन के लिए फसलें तैयार होती हैं, जो ज्यादातर मोटे अनाज के रूप में हैं। इनमें गेहूं, धान, मंडुवा, झंगोरा, ज्वार, चौलाई, तिल, राजमा, उड़द, गहथ, नौरंगी, लोबिया और तोर जैसी फसलें मुख्य हैं। इन्हीं अनाजों से यहां पर पौष्टिक एवं स्वादिष्ट व्यंजन बनाए जाते हैं। अब जबकि त्योहारों के साथ शादी-ब्याह का सीजन भी शुरू हो चुका है। ऐसे अवसरों पर मोटे अनाजों से बनने वाले नाना प्रकार के व्यजनों का स्वाद हर किसी को भाता है। शादी-ब्याह के मौकेपर चावल के आटे से बनने वाले अरसे और पिसी हुई उड़द की दाल से बनी पकोड़ि‍यां भला किसे नहीं ललचाती होंगी। स्वाले, भूड़े, खीर, रोट, पुए, पत्यूड़, गुंडला, पेठा व पिंडालू से बनने वाली बड़ि‍यां  जैसे व्यजनों को ग्रहण करने का भी अलग ही मजा है।

चटखारेदार और स्वास्थ्यवर्द्धक खानपान

पहाड़ में लोगों ने अपनी आवश्यकता के अनुसार कई प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन ईजाद किए हैं। इनमें दाल-भात के साथ ही काफली, फाणु, झ्वली (कढ़ी), चैंसु, रैलु, बाड़ी, पल्यो, कोदे  (मंडुवा) व मुंगरी (मक्का) की रोटी, आलू का थिंचोंणी, आलू का झोल, झंगोरे का भात, अरसा, बाल मिठाई, भांग की चटनी, भट का चुलकाणि, डुबुक, गहत (कुलथ) का गथ्वाणि, गहत की भरवा रोटी, गुलगुला, झंगोरे की खीर, स्वाला, तिल की चटनी, उड़द की पकोड़ी आदि प्रमुख हैं। सब्जियों में कंडाली की भी सब्जी बनाई गई। जंगलों से लाकर तैडु, गींठी भी खाई गई। कभी बसिंग तो कभी सेमल के फूल का साग भी बनाया जाता रहा है।

प्रोटीन, कैल्शियम, विटामिन व खनिज लवण का भंडार

सर्दी के मौसम में भले ही हमारी डाइट कम हो, लेकिन शरीर के लिए जरूरी पौष्टिक तत्वों और कैलोरी की मात्रा कम नहीं होनी चाहिए। तीनों समय के खाने में ऐसी चीजों को शामिल किया जाना चाहिए, जिनसे हमारे शरीर के लिए जरूरी कैलोरी के साथ प्रोटीन, कैल्शियम, विटामिन व खनिज लवण की कमी पूरी हो जाए। भोजन में एंटी ऑक्सीडेंट तत्वों से भरपूर वस्तुएं शामिल होनी चाहिएं। इनके सेवन से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है, जिससे हम मौसमी बीमारियों से बचे रहते हैं। इस मौसम में शरीर की प्राकृतिक नमी कम हो जाती है। सो, इससे बचने के लिए खूब सारा पानी पीना जरूरी है।

आलू के गुटके

आलू के गुटके विशुद्ध रूप से कुमाऊंनी स्नैक्स हैं। इसके लिए उबले हुए आलू को इस तरह से पकाया जाता है कि आलू का हर टुकड़ा अलग दिखे। इसमें पानी का इस्तेमाल बिल्कुल नहीं होता। मसाले मिलाकर इसे लाल भुनी हुई मिर्च व धनिए के पत्तों के साथ परोसा जाता है। स्वाद में वृद्धि के लिए इसमें जख्या के तड़के की अहम भूमिका होती है। आलू के गुटके मंडुवे की रोटी और चाय के साथ भी खाए जा सकते हैं।

भांग या तिल की चटनी

भांग या तिल की चटनी बनाने के लिए इनके दानों को पहले गर्म तवे या कढ़ाई में भूना जाता है। फिर इन्हें सिल या मिक्सी में पीसा जाता है। इसमें जीरा पाउडर, धनिया, नमक और स्वादानुसार मिर्च डालकर अच्छे से सभी को सिल में पीस लिया जाता है। बाद में नींबू का रस डालकर इसे आलू के गुटके, अन्य स्नैक्स, रोटी आदि के साथ परोसा जाता है। इस चटनी का स्वाद अलौकिक होता है।

कुमाऊंनी रायता

कुमाऊं का रायता देश के अन्य हिस्सों के रायते से काफी अलग होता है। इसे आमतौर पर दोपहर के भोजन के साथ परोसा जाता है। इसमें बड़ी मात्रा में ककड़ी (खीरा), सरसों के दाने, हरी मिर्च, हल्दी पाउडर और धनिए का इस्तेमाल होता है। इस रायते की खास बात छनी हुई छाज (प्लेन लस्सी) होती है।

मंडुवे की रोटी

मंडुवे में बहुत ज्यादा फाइबर होता है। इसलिए इसकी रोटी स्वादिष्ट होने के साथ स्वास्थ्यवद्र्धक भी होती है। मंडुवे की रोटी भूरे रंग की बनती है। क्योंकि इसका दाना गहरे लाल या भूरे रंग का होता है, जो कि सरसों के दाने से भी छोटा होता है। मंडुवे की रोटी को घी, दूध या भांग व तिल की चटनी के साथ परोसा जाता है। कई बार पूरी तरह से मंडुवे की रोटी के अलावा इसे गेंहू की रोटी के अंदर भरकर भी बनाया जाता है। ऐसी रोटी को लोहोटु (डोठ) रोटी कहा जाता है। जबकि, गेहूं के आटे व मंडुवे को मिलाकर जो रोटी बनती है, उसे ढबड़ि रोटी कहते हैं। 

कंडाली का साग

कंडाली के साग में बहुत ज्यादा पौष्टिकता होती है। कंडाली को आमतौर पर बिच्छू घास भी कहते हैं। इसकेहरे पत्तों का साग बनाया जाता है। मुलायम कांटेदार होने के कारण कंडाली के पत्तों या डंडी को सीधे नहीं छुआ जा सकता। यह अगर शरीर के किसी हिस्से में लग जाए तो वहां सूजन आ जाती है और बहुत ज्यादा जलन होती है। लेकिन, इसके साग का कोई जवाब नहीं। गांव-देहात के अनुभवी लोग इसे बड़ी सावधानी से हाथ में कपड़ा लपेटकर काटते हैं। काली दाल और चावल के साथ इसकी खिचड़ी भी बेहद स्वादिष्ट होती है।

काप या काफली

यह एक हरी करी है। सरसों, पालक आदि के पत्तों को पीसकर बनाया जाने वाला काप कुमाऊंनी खाने का अहम हिस्सा है, जिसे गढ़वाल में काफली कहते हैं। इसे रोटी और चावल के साथ लंच और डिनर में परोसा जाता है। यह एक शानदार और पोषक आहार है। काप बनाने के लिए हरे साग को काटकर उबाल लिया जाता है। फिर इन पत्तों को पीसकर पकाया जाता है।

डुबुक (डुबुके) 

डुबक भी कुमाऊं अंचल में अक्सर खाई जाने वाली डिश है। असल में यह दाल ही है, लेकिन इसमें दाल को दड़दड़ा (मोटा) पीसकर बनाया जाता है। बावजूद यह मास (उड़द) के चैस (चैंसू) से अलग है। डुबक पहाड़ी दाल भट, गहत आदि को पीसकर बनाया जाता है। लंच के समय चावल के साथ डुबुक का सेवन किया जाता है। 

गहत (कुलथ) के पराठे

गहत की दाल के पराठे उत्तराखंड का एक प्रसिद्ध पकवान हैं। यह पराठे गहत की दाल को गेहूं या मंडुवे के आटे के मिश्रण में भरकर बनाए जाते हैं। देसी घी, भांग व लहसुन की चटनी या घर के बने अचार के साथ खाने का इसका स्वाद ही निराला है।

फानु (फाणु)

यह एक खास प्रकार का पहाड़ी व्यंजन है। इसके लिए विभिन्न प्रकार की दाल (विशेषकर गहत) रातभर पानी में भिगोई जाती है। फिर इस दाल को अच्छे से पीस कर फाणु बनाया जाता है। गर्म-गर्म चावल के साथ परोसे जाने पर यह व्यंजन अत्यंत स्वादिष्ट होता है। सर्दियों में फाणू-भात उत्तराखंड में बहुत ज्यादा खाया जाता है।

बाड़ी (मंडुवे का फीका हलुवा)

बाड़ी उत्तराखंड के सबसे पुराने व्यंजनों में से एक है। इसे मंडुवे के आटे से बनाया जाता है। बाड़ी में पोषक तत्व भरपूर मात्रा में होते हैं। मंडुवे के आटे को पानी में घी के साथ अच्छे से पकाकर इसे बनाया जाता है। इसे फाणू अथवा तिल की चटनी के साथ भी खाया जाता है। घर के घी और फाणू में इसका स्वाद और निखर जाता है।

चैंसू

चैंसू एक प्रोटीन युक्त लाजवाब व्यंजन है, जो कि काली दाल (उड़द) को पीसकर बनता है। यह हर पहाड़ी  के लिए एक लोकप्रिय भोजन विकल्प है। चैंसू बनाने के लिए दाल को सिल या मिक्सी में पीसा जाता है। दाल का अच्छा पेस्ट तैयार कर उसे धीमी आंच पर पकाया जाता है और फिर भात के साथ खाया जाता है। बेहतर स्वाद के लिए इसे लोहे के बर्तन (कढ़ाई) में पकाया जाता है।

थिंच्वाणी

थिंच्वाणी बनाने के लिए पहाड़ी मूला या पहाड़ी आलू को क्रश (थींचा) कर पकाया जाता है। सर्दियों में इसे रोटी या चावल के साथ बड़े चाव से खाया जाता है। जख्या या फरण का तड़का इसका स्वाद और बढ़ा देता है।

अरसा

यह पहाड़ का पारंपरिक मीठा पकवान है। आमतौर पर पहाड़ी शादियों में इसे बनाया जाता है। इसमें गुड़, चावल और सरसों के तेल का इस्तेमाल होता है। पहले चावल को कम से कम तीन-चार घंटे तक भिगोया जाता है और फिर उसे बारीक कूटकर गुड़ की चासनी के साथ पेस्ट बनाया जाता है। इस मिश्रण को छोटे-छोटे गोलों के रूप में तैयार कर तेल में तला जाता है। कहीं-कहीं अरसे तलने के बाद दोबारा गुड़ की चासनी में डाला जाता है। इसे पाक लगाना कहते हैं।

यह भी पढ़ें: देश विदेश में खासी मशहूर है अल्मोड़ा की ये मिठाइयां

यह भी पढ़ें: मंडुवे के बिस्किट बन रहे लोगों की पहली पसंद, कर्इ राज्यों में होगी बिक्री

एक बार खेंचुवां खाएंगे तो यादों में बस जाएगा डीडीहाट


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.