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गंगा के मायके में आस्था के उपहार के बीच प्रकृति का श्रृंगार, परंपरागत शिल्प से तैयार मकान भी खूबसूरती के लिए प्रसिद्ध

मां गंगा के शीतकालीन निवास स्थल मुखवा गांव में आस्था का अपार भंडार तो है ही साथ ही यहां का प्रकृति ने भी खूब श्रृंगार किया है। हिमालय की गोद में बसे इस गांव की तलहटी में बहती है खुशबू से सराबोर आबोहवा।

By Raksha PanthriEdited By: Published: Tue, 09 Nov 2021 10:39 AM (IST)Updated: Tue, 09 Nov 2021 11:11 AM (IST)
गंगा के मायके में आस्था के उपहार के बीच प्रकृति का श्रृंगार, परंपरागत शिल्प से तैयार मकान भी खूबसूरती के लिए प्रसिद्ध
गंगा के मायके में आस्था के उपहार के बीच प्रकृति का श्रृंगार।

शैलेंद्र गोदियाल, उत्तरकाशी। पतित पावनी मां गंगा के शीतकालीन निवास स्थल मुखवा गांव में आस्था का अपार भंडार तो है ही, साथ ही यहां का प्रकृति ने भी खूब श्रृंगार किया है। हिमालय की गोद में बसे इस गांव की तलहटी में बहती है मां गंगा, भागीरथी और आस-पास फैली देवदार, कैल और विभिन्न बेशकीमती वृक्षों की खुशबू से सराबोर आबोहवा। मुखवा गांव गंगोत्री धाम के तीर्थ पुरोहितों का भी गांव है। मां गंगा की भोगमूर्ति के इस शीतकालीन प्रवास स्थल को मुखीमठ भी कहा जाता है। तो चलिए आपको गंगा के मायके से रुबरू करवाते हैं। साथ ही यहां की मान्यताओं के बारे में भी बताते हैं...

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मुखवा गांव उत्तरकाशी जिला मुख्यालय से 78 की दूरी पर स्थित है। यह गांव सड़क मार्ग से भी जुड़ा हुआ है। इस गांव में साढ़े चार सौ परिवार रहते हैं। परंपरागत शिल्प से तैयार लकड़ी के मकान अपनी खूबसूरती के लिए प्रसिद्ध है। मान्यताओं के अनुसार, वानप्रस्थ के दौरान विचरण करते हुए पांडव मुखवा गांव पहुंचे थे और यहां पर उनका प्रवास रहा था। मार्कंडेय ऋषि ने तप कर इसी गांव में अमरत्व का वरदान हासिल किया था। शीतकाल के दौरान मां गंगा की भोगमूर्ति की पूजा मुखवा के गंगा मंदिर में होती है।

शीतकाल में यहीं होते हैं मां के दर्शन, रहती है चहल-पहल

शीतकाल में इसी मंदिर में गंगा के दर्शन किये जा सकते हैं। शीतकाल के छह महीनों में मुखवा गांव का माहौल खुशियों भरा रहता है। यहां मां गंगा के निवास करने और तीर्थयात्रियों के पहुंचने पर पूरे छह माह तक काफी चहल-पहल रहती है। छह माह बाद अक्षय तृतीय के दिन गंगोत्री धाम के कपाट खुलते हैं और गंगा अक्षय तृतीय के एक दिन पहले गंगोत्री धाम मुखवा गांव से रवाना हो जाती हैं। मुखवा के ग्रामीण गंगा की डोली को बेटी की तरह विदा करते हैं।

चंडी देवी के घर भी होता गंगा का प्रवास

गंगोत्री के शीतकालीन पड़ाव मुखवा गांव के निकट चंडी देवी का मंदिर अपनी ऐतिहासिक और आध्यात्मिकता को समेटे हुए है। नवरात्र के दौरान हर वर्ष इस मंदिर में चंडी पाठ का आयोजन होता है। लोगों की आस्था है कि मां चंडी देवी भक्तों के घोर संकट का भी हरण कर देती है। चंडी देवी माता के मंदिर में पूर्व केन्द्रीय मंत्री उमा भारती भी कई बार ध्यान और साधना कर चुकी है। उत्तरकाशी जिला मुख्यालय से 80 किलोमीटर दूर मुखवा गांव पड़ता है। मुखवा तक पहुंचने के लिए सड़क मार्ग की सुविधा है।

तीन किमी की पैदल दूरी पर है चंडी देवी का पौराणिक मंदिर 

मुखवा से तीन किलोमीटर की पैदल दूरी पर भागीरथी के किनारे चंडी देवी का पौराणिक मंदिर है। यह मंदिर एक शिला के ऊपर बना हुआ है। गंगा घाटी पर पुस्तक लिख चुके इतिहासकार उमारमण सेमवाल कहते हैं कि चंडी देवी के मंदिर के निकट तीन नदियों का संगम है। इन नदियों में एक नदी भागीरथी, दूसरी डांडा पोखरी पर्वत से आने वाली देव गंगा और तीसरी चंद्र पर्वत से आने वाली हत्याहारणी नदी है। ऐतिहासिक महत्व के अनुसार इस मंदिर का जीर्णोधार टिहरी के राजा कीर्ति शाह ने कराया था। इसके साथ ही जिस स्थान पर मंदिर बना है उस स्थान के निकट 16वीं शताब्दी में तिब्बती लुटेरों और कचोरागढ़ (हर्षिल के निकट) के राणा वंशी भड़ों के बीच युद्ध हुआ था।

गंगोत्री के तीर्थ पुरोहित और गंगोत्री व्यापार मंडल के पूर्व अध्यक्ष सत्तेंद्र सेमवाल कहते कि चंडी देवी का वर्णन मार्कंडे पुराण में भी मिलता है। मान्यता है कि चंडी देवी ने चंड और मुंड का नाश किया था। उनके सिर को एक शिला के नीचे दबा दिए थे। उसी शिला के ऊपर चंडी देवी का मंदिर है। नवरात्र के दौरान इस मंदिर में पूजा अर्चना का विशेष महत्व है। गंगोत्री धाम के कपाट बंद हो जाने के बाद जब गंगा की डोली मुखवा के लिए आती है तो एक रात को इसी चंडी देवी मंदिर में विश्राम करती है, जिसके बाद मुखवा स्थित गंगा मंदिर में आती है।

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