18 साल का हुआ उत्तराखंड, ग्रीन बोनस पर मंजिल अभी कोसों दूर
उत्तराखंड की ग्रीन बोनस पर मंजिल अभी कोसों दूर है। कर्इ दुश्वारियां झेलने के बाद भी पर्यावरण संरक्षण राज्य की पहली प्राथमिकता है।
देहरादून, [केदार दत्त]: देश की आबोहवा को साफ-सुथरा बनाने और हवा को सांस लेने लायक बना रहे उत्तराखंड को इन प्रयासों की सराहना तो मिल रही, मगर इसके एवज में क्षतिपूर्ति के मामले में उसकी झोली अभी तक खाली है। हालांकि, राज्य सरकार की ओर से इस संबंध में लगातार अपना पक्ष केंद्र के समक्ष रखा जा रहा है। अब उम्मीद बंधी है कि अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले केंद्र इस बारे में कुछ न कुछ सौगात उत्तराखंड को अवश्य देगा।
हिमालयी राज्य उत्तराखंड में 71.05 फीसद हिस्सा वन भूभाग है। जंगलों को सहेजना यहां की परंपरा का हिस्सा रहा है। यही वजह भी है कि तमाम दुश्वारियां झेलने के बाद भी यहां के जंगल दूसरे राज्यों की तुलना में अधिक सुरक्षित हैं। कुल भूभाग का करीब 47 फीसद वनावरण और राष्ट्रीय पशु बाघ समेत दूसरे वन्यजीवों के संरक्षण में अव्वलता इसकी तस्दीक भी करती है। वह भी तब जबकि राज्यवासी वन एवं वन्यजीवों को बचाने के एवज में तमाम दिक्कतों से लगातार दो चार होते आ रहे हैं।
जंगली जानवरों के खौफ से राज्यवासी सबसे अधिक परेशान हैं। राज्य गठन से लेकर अब तक करीब 625 लोगों की जान जंगली जानवरों के हमले में गई है तो इसके तीन गुने से अधिक घायल हुए हैं। यही नहीं, वन कानूनों के कारण प्रदेश में तमाम योजनाएं लटकी हुई हैं। फिर भी वन एवं वन्यजीवों को बचाना यहां की प्राथमिकता में शुमार है।
सरकारी अनुमान पर ही गौर करें तो उत्तराखंड करीब तीन लाख करोड़ की पर्यावरणीय सेवाएं दे रहा है। इनमें वनों की हिस्सेदारी एक लाख करोड़ रुपये सालाना के लगभग है। बात यहीं खत्म नहीं होती, हर साल ही बरसात में बड़े पैमाने पर यहां की नदियां अपने साथ करोड़ों टन मिट्टी बहाकर ले जाती हैं, जो दूसरे प्रदेशों के क्षेत्रों के निचले इलाकों को उपजाऊ माटी देकर खेती को खुशहाल बनाती आ रही है।
पर्यावरण को सहेजने के एवज में ही राज्य की ओर से ग्रीन बोनस अथवा क्षतिपूर्ति के लिए इंसेटिव की मांग केंद्र से लगातार की जा रही है। हालांकि, केंद्र में भाजपा की सरकार बनने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिमालयी राज्यों को लेकर जिस तरह से सजगता दिखाई, उससे उम्मीद जगी कि उत्तराखंड की यह साध जरूर पूरी होगी, लेकिन अभी तक इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हो पाई है। ये बात अलग है कि पर्यावरण को सहेजने में केंद्र भी उत्तराखंड के योगदान को सराहता आया है। अब जबकि अगले साल लोकसभा चुनाव होने हैं तो उम्मीद जताई जा रही कि ग्रीन बोनस के लिहाज से केंद्र राज्य को कुछ न कुछ सौगात अवश्य दे सकता है।
पर्यावरण और विकास के मध्य सामंजस्य की चुनौती
विषम भूगोल और जैव विविधता के लिए मशहूर 71 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड में पर्यावरणीय चुनौतियां भी कम नहीं हैं। पर्यावरण और विकास में समन्वय एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आया है। ऐसे में राज्य सरकार को इसके लिए ठोस एवं प्रभावी फार्मूला निकालना होगा, ताकि पर्यावरण भी महफूज रहे और लोगों को दिक्कतों से भी दो-चार न होना पड़े।
यह ठीक है कि पर्यावरण का संरक्षण यहां की परंपरा का हिस्सा रहा है, लेकिन बदली परिस्थितियों में विकास और पर्यावरण के मध्य सामंजस्य का अभाव साफ नजर आता है। खासकर वन कानूनों की बंदिशों ने अधिक दिक्कतें बढ़ाई हैं। कहीं, सड़क परियोजनाएं बाधित हो रही हैं तो कहीं पानी, बिजली समेत अन्य योजनाएं।
इस सबको देखते हुए ही राज्य की विषम परिस्थितियों के मद्देनजर वन कानूनों में शिथिलता की मांग लगातार उठती रही है, लेकिन केंद्र की ओर से इसे खास तवज्जो नहीं मिल पाई है। सूरतेहाल, राज्य सरकार को केंद्र के समक्ष इस सिलसिले में अपना पक्ष बेहद प्रभावी ढंग से रखना होगा, ताकि कुछ न कुछ सहूलियत मिल सके। साथ ही पर्यावरण व विकास में बेहतर सामंजस्य बना रहे, इसके लिए रास्ता निकालना होगा।
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