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देश को सालाना तीन लाख करोड़ से ज्यादा की पर्यावरणीय सेवाएं देता है ये राज्य, फिर भी अधूरी ग्रीन बोनस की आस

सालाना तीन लाख करोड़ से अधिक की पर्यावरणीय सेवाएं देने वाला उत्तराखंड। इसकी एवज में उत्तराखंड को अभी तक ग्रीन बोनस नहीं मिल पाया है। प्रदेश में आने वाली सभी सरकारें वर्षों से इसकी मांग करती रही हैं।

By Raksha PanthariEdited By: Published: Fri, 16 Oct 2020 05:00 PM (IST)Updated: Fri, 16 Oct 2020 10:46 PM (IST)
देश को सालाना तीन लाख करोड़ से ज्यादा की पर्यावरणीय सेवाएं देता है ये राज्य, फिर भी अधूरी ग्रीन बोनस की आस
ग्रीन बोनस की आस आजतक भी अधूरी।

देहरादून, विकास गुसाईं। देश को सालाना तीन लाख करोड़ से अधिक की पर्यावरणीय सेवाएं देने वाला उत्तराखंड। इसकी एवज में उत्तराखंड को अभी तक ग्रीन बोनस नहीं मिल पाया है। प्रदेश में आने वाली सभी सरकारें वर्षों से इसकी मांग करती रही हैं। कारण यह कि विषम भूगोल और 71 फीसद वन भूभाग वाला उत्तराखंड दिक्कतें झेलने के बाद भी पर्यावरण संरक्षण में अहम भूमिका निभा रहा है। इसमें जंगलों का योगदान सबसे ज्यादा है। आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो राज्य द्वारा प्रतिवर्ष दी जा रही तीन लाख करोड़ से अधिक की पर्यावरणीय सेवाओं में अकेले वनों का योगदान एक लाख करोड़ रुपये के आसपास है। हालांकि, वनों का संरक्षण उत्तराखंड की परंपरा का हिस्सा है, लेकिन वन कानूनों की बंदिशें भी कम नहीं हैं। सड़क से लेकर पेयजल योजनाओं तक के लिए वन भूमि हस्तांतरण को ऐड़ियां रगड़नी पड़ती हैं। बावजूद इसके प्रदेश को ग्रीन बोनस का लाभ नहीं मिल पाया है।

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आखिर कब तक चलेगी जांच

प्रदेश में नई सरकार ने आते ही भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस के तहत कदम उठाते हुए राष्ट्रीय राजमार्ग-74 घोटाले का पर्दाफाश किया। शुरुआती जांच में दोषी पाए गए अधिकारियों को सस्पेंड किया, विभागीय जांच भी बिठाई गई। इस जांच को शुरू हुए साढ़े तीन साल का समय बीत चुका है। सस्पेंड किए गए अधिकारी अब बहाल होकर विभिन्न जिलों में अपनी सेवाएं दे रहे हैं, लेकिन जांच अभी तक पूरी नहीं हो पाई है। इस अवधि में इनमें से कुछ पीसीएस अधिकारी सेवानिवृत्त भी हो चुके हैं। ये पीसीएस अधिकारी घोटाले के समय ऊधमसिंह नगर जिले में एसडीएम से लेकर भूमि अध्याप्ति अधिकारी के पदों पर तैनात रहे। प्रारंभिक जांच में दोषी पाए जाने पर सरकार द्वारा मामले की जांच शासन के एक वरिष्ठ अधिकारी को सौंपी गई। इसमें कोई समय सीमा निर्धारित नहीं थी। इसका असर यह कि साढ़े तीन साल से यह जांच अभी चल ही रही है।

ऑटोमेटेड टेस्टिंग लेन का इंतजार

प्रदेश में 10 वर्ष पूर्व प्रस्तावित ऑटोमेटेड टेस्टिंग लेन आज तक अस्तित्व में नहीं आ पाई है। इतना जरूर हुआ कि इस अंतराल में संख्या एक से बढ़कर चार हो गई और बजट में तीन गुना बढ़ोतरी। केंद्र सरकार ने भी इसमें सहयोग देने को हामी भरी, लेकिन इनका निर्माण नहीं हो पाया।  दरअसल, प्रदेश में दुर्घटनाओं के बढ़ते ग्राफ को देखते हुए वर्ष 2009 में ऋषिकेश में ऑटोमेटेड टेस्टिंग लेन बनाने की स्वीकृति मिली थी। टेस्टिंग लेन का फायदा यह है कि इसमें वाहनों की फिटनेस तेजी से जांची जा सकती है। इसके लिए तीन करोड़ का बजट जारी किया गया। यह बढ़कर अब 10 करोड़ हो चुका है। हालांकि अब हल्द्वानी और हरिद्वार में दो-दो लेन बननी प्रस्तावित हैं। इस वर्ष काम शुरू होने की पूरी उम्मीद थी, लेकिन कोरोना के कारण महीनों चले लॉकडाउन और फिर वित्तीय कारणों से इन पर काम शुरू नहीं किया जा सका।

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फाइलों में कैद पुलिस रेंज

प्रदेश में बेहतर कानून-व्यवस्था की उम्मीदें हर सरकार ने जगाई। व्यवस्था चाक-चौबंद करने के लिए खूब कागजी घोड़े दौड़ाए, योजनाएं बनीं, फाइलों में चढ़ी और इसके बाद इन्हीं में गुम होकर रह गईं। इनमें से एक योजना प्रदेश में पुलिस रेंज, यानी परिक्षेत्र की संख्या बढ़ाने की थी। कहा गया कि रेंज बढ़ाने से पुलिसिंग व्यवस्था और बेहतर होगी। वर्ष 2013 के अंत में इस योजना का खाका खींचा गया और वर्ष 2014 में इसे शासन को भेजा गया। देहरादून और नैनीताल की मौजूदा रेंज के साथ ही अल्मोड़ा और हरिद्वार में दो नई रेंज बनानी प्रस्तावित की गईं। शासन में यह मामला ऐसा उलझा, कि पुलिस रेंज कभी फाइलों से बाहर ही नहीं निकल पाई। उत्तर प्रदेश में पुलिस रेंज की संख्या बढऩे के बाद उत्तराखंड में भी फिर से इसकी सुगबुगाहट शुरू हुई। अधिकारियों ने सिर मिलाए, मंथन किया और फिर से फाइलों में ही कैद कर दिया।

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