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उत्तराखंड में जंगलों को आग से बचाने के देर से ही सही, पर नींद से जागी सरकार

पर्यावरणीय दृष्टि से बेहद संवेदनशील उत्तराखंड में जंगलों को आग से बचाने के मामले में आखिरकार सरकार की तंद्रा टूट गई। अब उसे समझ आ गया कि प्रतिवर्ष लगभग 98 हजार करोड़ रुपये की पर्यावरणीय सेवाएं देने वाले वनों को बचाना कितना जरूरी है।

By Raksha PanthriEdited By: Published: Fri, 30 Apr 2021 05:05 PM (IST)Updated: Fri, 30 Apr 2021 11:03 PM (IST)
उत्तराखंड में जंगलों को आग से बचाने के देर से ही सही, पर नींद से जागी सरकार
आग से बचाने के देर से ही सही, पर नींद से जागी सरकार।

केदार दत्त, देहरादून। पर्यावरणीय दृष्टि से बेहद संवेदनशील उत्तराखंड में जंगलों को आग से बचाने के मामले में आखिरकार सरकार की तंद्रा टूट गई। अब उसे समझ आ गया कि प्रतिवर्ष लगभग 98 हजार करोड़ रुपये की पर्यावरणीय सेवाएं देने वाले वनों को बचाना कितना जरूरी है। राज्य में वनों की आग पर प्रभावी नियंत्रण के लिए अग्नि सुरक्षा नीति की कवायद इसकी तस्दीक करती है। नीति में वन बचाने को ढांचागत व संस्थागत सुविधाओं पर ध्यान केंद्रित करने के साथ ही वन कर्मियों के कौशल विकास, स्थानीय समुदाय की भागीदारी, वनों में गिरने वाली पत्तियों व सूखे-गिरे पेड़ों का संसाधन के तौर पर उपयोग जैसे विषयों का समावेश करने का निश्चय किया गया है। और तो और, नीति में कार्मिकों की जिम्मेदारी व जवाबदेही का बिंदु भी प्रमुखता से शामिल किया जाएगा। निश्चित रूप से यह समय की मांग भी है। अब देखना है कि नीति कब तक अमल में आती है।

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अब ड्रोन से होगी फायर लाइनों की निगरानी

जंगलों को आग से बचाने के लिए फायर लाइनें सबसे कारगर हथियार है। फायर लाइन यानी जंगलों में बनाए गए चौड़े रास्ते, जिन्हें साफ रखकर आग को एक से दूसरे हिस्सों में जाने से रोका जाता है। सदियों से फायर लाइनों का उपयोग होता आ रहा है। 71.05 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड के जंगलों में भी करीब 14 हजार किलोमीटर लंबी फायर लाइनें अस्तित्व में हैं। यदि ये साफ रहें तो आग पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है, मगर इसे लेकर कुछ उदासीनता का आलम है तो कुछ यहां का विषम भूगोल दुश्वारियां खड़ी कर देता है। ऐसे में ये तक पता नहीं चल पाता कि फायर लाइनें कहां पर हैं। इस सबको देखते हुए अब फायर लाइनों पर ड्रोन से निगरानी रखने का फैसला ठीक कहा जा सकता है। इसके लिए तेजी से कदम उठाने की दरकार है। आखिर, सवाल वनों को बचाने का है।

कैंपा में मिले भारी-भरकम फंड का सदुपयोग जरूरी

कोरोना संकट के इस दौर में भी उत्तराखंड को केंद्र से प्रतिकरात्मक वन रोपण निधि प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण (कैंपा) में बड़ी सौगात मिली है। यह पहला मौका है जब राष्ट्रीय कैंपा ने उत्तराखंड के लिए 950 करोड़ रुपये की वार्षिक कार्ययोजना को हरी झंडी दी है। इससे पूर्व कैंपा में राज्य का सर्वाधिक बजट साढ़े तीन सौ करोड़ रुपये का था। जाहिर है कि अब कैंपा में विभिन्न कार्यों के लिए भारी-भरकम बजट मिला है तो इसका सदुपयोग भी जरूरी है।

कैंपा में क्षतिपूरक वनीकरण के साथ ही नदियों व जलस्रोतों के संरक्षण पर तो खास फोकस किया ही गया है, आजीविका विकास पर भी ध्यान केंद्रित किया गया है। ये तय किया गया है कि कैंपा में सभी कार्य जनसहभागिता से संपादित कराए जाएंगे। इससे रोजगार के अवसर भी सृजित होंगे। लिहाजा, अब यह उत्तराखंड पर निर्भर है कि वह इन कार्यों को गंभीरता से धरातल पर उतारे।

वर्षाकालीन पौधारोपण के लिए अभी से हों तैयारियां

मानसून के आगमन में भले ही अभी वक्त है, लेकिन वर्षाकाल में जंगलों में किए जाने वाले पौधारोपण के लिए अभी से तैयारियां की जानी आवश्यक हैं। वह इसलिए भी कि इस मर्तबा पिछले साल अक्टूबर से ही जंगल धधक रहे हैं। आग से अब तक करीब ढाई सौ हेक्टेयर क्षेत्र में किया गया पौधारोपण राख हो गया। यही नहीं, बड़े पैमाने पर जंगलों को भारी क्षति पहुंची है।

ऐसे में जरूरी है कि वर्षाकाल में वन क्षेत्रों में ऐसी प्रजातियों के पौधों के रोपण पर ध्यान केंद्रित किया जाए, जो जल संरक्षण में भी सहायक हों। साथ ही बारिश का पानी वन क्षेत्रों में रोकने को खाल-चाल, ट्रैंच, चेकडैम पर फोकस करना जरूरी है। इससे जंगलों में नमी बरकरार रहेगी और आग का खतरा भी न के बराबर रहेगा। साथ ही रोपे गए पौधे ठीक से पनपेंगे। उम्मीद की जानी चाहिए कि वन महकमा इसके लिए मुस्तैदी से जुटेगा।

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