Uttarakhand Forest Fire News: बेकाबू होती जंगल की आग में सुलगते सवाल
Uttarakhand Forest Fire News जंगल की आग को तेजी से दहकाने में चीड़ के जंगल काफी हद तक जिम्मेदार हैं। पर्यावरणविद भी अब चीड़ की जगह अन्य प्रजाति के पौधों के नियोजित रोपण की जरूरत महसूस करते रहे हैं।
देहरादून, कुशल कोठियाल। Uttarakhand Forest Fire News उत्तराखंड में इस मर्तबा अक्टूबर से जंगल धधक रहे हैं। शीतकालीन सूखे की यह स्वाभाविक परिणति मानी जा रही है। आग इस कदर भयावह है कि सरकार को केंद्र से मदद मांगनी पड़ी और अब इस पर काबू पाने के लिए वायुसेना के हेलीकॉप्टर मोर्चा संभाल रहे हैं। पांच अप्रैल तक राज्य में आग की 1,128 घटनाओं में 1,538 हेक्टेयर जंगल को नुकसान पहुंचा। आग से 82 हेक्टेयर में हुआ पौधरोपण राख हो गया, जबकि 9,560 बड़े पेड़ों को नुकसान पहुंचा।
पिछले 10 वर्षो के आग के आंकड़े बताते हैं कि राज्य में हर साल औसतन दो हजार हेक्टेयर से ज्यादा जंगल झुलस रहा है। आग से वनों व वन्य जीवों के अलावा परिंदों, जैव विविधता में योगदान देने वाले छोटे जीवों और पौधों को भी बड़ा नुकसान पहुंच रहा है। यही नहीं, 2016 से अब तक आग बुझाने के दौरान 15 लोग जान गंवा चुके हैं, जबकि 31 घायल हुए हैं। कहने को तो इस मौसम में जंगलों में आग लगना सामान्य तौर पर होने वाली प्राकृतिक आपदा है, लेकिन पिछले वर्षो से जिस गति से इस तरह की घटनाओं में वृद्धि हो रही है व इसका दायरा बढ़ रहा है, वह इसके कारणों व निराकरण के उपायों पर भी ध्यान खींचता है।
वन विभाग के अफसर भी मानते हैं कि आग की बढ़ती घटनाओं के पीछे कुछ इरादतन की जा रही हरकतें और कुछ लापरवाही भी हैं, लेकिन साथ ही यह भी मानना पड़ेगा कि अभी तक उत्तराखंड जैसे वन बहुल राज्य के पास इस तरह की घटनाओं को अंजाम देने वालों को धरपकड़ का कोई तंत्र भी नहीं है। जंगल में आग लगी है या लगाई गई है, जब इसका पता ही नहीं लगाया जा सकता है, तो सारा भांडा कुदरत पर ही फोड़ देना सुलभ निराकरण माना जाता रहा है। जिम्मेदार महकमा व अराजक तत्व इसी आड़ में बच निकलते हैं और सरकारें धुआं-धुआं माहौल में पानी के लिए आसमान की ओर ताकती रहती हैं। मानसून आने पर फिर जंगल हरे-भरे दिखने लगते हैं और सारा तंत्र आग से हुए नुकसान को भूल जाता है।
जंगलों में ग्रीष्मकाल में लगने वाली आग को बुझाने के तौर-तरीकों पर हमने कितना शोध व नवोन्मेष किया है, इसका अंदाजा इस बात से ही लगा सकते हैं कि वन विभाग के पास आग बुझाने का सबसे सशक्त व सुलभ माध्यम झांपा ही है। झांपा यानी चौड़ी पत्तियों वाली टहनियों का बड़ा झाड़ू। शायद यह खोज जंगलों में रहने वाले कबीलों की होगी, जिसे अब सरकारी कारिंदे व्यापक व प्रभावी उपाय के रूप में अमल में लाते हैं। जंगलों की आग पर न जाने कितने अंतरराष्ट्रीय सेमिनार हो गए, कितने हाकिम विदेशों में स्टडी टूर कर आए, लेकिन जंगल की आग पर काबू पाने के लिए आज भी आसरा तो झांपा का ही है। जंगल में आग जमीन पर गिरी सूखी घास व पत्तियों से फैलती है। इसलिए समन्वित सर्वेक्षण के बाद रणनीतिक ढंग से फायर लाइन बनाई जाती है। इसके लिए सूखी पत्तियों व घास को हटा कर या मिट्टी डाल कर जंगलों के बीचों-बीच फायर लाइन बनाई जाती है, ताकि एक तरफ की आग दूसरी तरफ न फैल पाए। यह तकनीक भी पारंपरिक है, लेकिन प्रभावी भी। फायर लाइन बनाने को जंगलों की खाक छाननी पड़ती है, जो कोई करना नहीं चाहता। सरकारी कागजों में फायर लाइन खींची जाती है, जमीन पर तो कम ही दिखती है। यदि फायरलाइन पर ही ईमानदारी से काम होता तो जंगल की आग इस कदर न फैलती।
जंगलों में ट्रेंच (लंबी व कम गहरी खाई) खोदना भी बहुपयोगी माध्यम है। बारिश का पानी इन ट्रैंच में भर जाता है, जो जल संरक्षण के साथ ही जंगल की आग को भी काबू में रखता है। आग के फैलने में ये ट्रैंच सीधी बाधा तो बनते ही हैं, साथ ही वनभूमि में नमी भी बनाए रखते हैं। इनमें जमा पानी वन्य जीवों के सूखे हलक को भी तर करता है।
जंगल की आग को तेजी से दहकाने में चीड़ के जंगल काफी हद तक जिम्मेदार हैं। पर्यावरणविद भी अब चीड़ की जगह अन्य प्रजाति के पौधों के नियोजित रोपण की जरूरत महसूस करते रहे हैं। इस तरह कुछ वर्षो में चीड़ के जंगल की जगह पर्यावरण के अनुकूल प्रजाति के जंगल ले सकते हैं, लेकिन इस ओर कुछ काम किया गया हो, ऐसा जंगलों में दिखता नहीं है। हालांकि विशेषज्ञ हैं, सरकारी अमला और बजट भी, कमी है तो बस इच्छाशक्ति की जो बाजार में मिलती नहीं।
[राज्य संपादक, उत्तराखंड]
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