Uttarakhand Election 2022: रणभूमि तैयार, नेताजी दे रहे शस्त्रों को धार
Uttarakhand Election 2022 चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के साथ ही सत्तारूढ़ भाजपा और मुख्य विपक्ष कांग्रेस समेत सभी राजनीतिक दल अब पूरी तरह मैदान में उतर गए हैं। बढ़ते कोरोना संक्रमण के कारण अभी माहौल पूरी तरह चुनावी रंग में रंगा नहीं दिख रहा है।
विकास धूलिया, देहरादून। Uttarakhand Election 2022 उत्तराखंड में चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के साथ ही सत्तारूढ़ भाजपा और मुख्य विपक्ष कांग्रेस समेत सभी राजनीतिक दल अब पूरी तरह मैदान में उतर गए हैं। बढ़ते कोरोना संक्रमण के कारण अभी माहौल पूरी तरह चुनावी रंग में रंगा नहीं दिख रहा है, लेकिन प्रचार अभियान की वैकल्पिक कार्ययोजना तैयार करने के लिए सभी दलों के रणनीतिकार सिर जोड़कर बैठे हैं। पहली बार चुनाव में वर्चुअल माध्यम की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो गई है, लिहाजा फिलहाल सभी की रणनीति इसी के इर्द-गिर्द केंद्रित रहने की संभावना है। चुनावी माहौल गर्माने के लिए विभिन्न राजनीतिक दल और संगठन मुद्दों को धार देने की तैयारी कर रहे हैं। कुछ महत्वपूर्ण और चर्चित विषय पहले से ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं, जिन्हें राजनीतिक दल और राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले संगठन मुद्दों के रूप में उछालने की तैयारी कर रहे हैं। अधिकांश मुद्दों पर सत्तापक्ष को कठघरे में खड़ा करने के लिए हवा दी जाएगी, तो सत्तापक्ष भी विपक्ष की कमजोर नस दबाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा। कुछ मुद्दे ऐसे भी होंगे जो सामाजिक संगठनों द्वारा राजनीतिक दलों की घेराबंदी करने के लिए पैदा किए जाएंगे। किसी विषय को मुद्दे की शक्ल देने में सर्वाधिक अहम भूमिका रहेगी इंटरनेट मीडिया की। चलिए आकलन करते हैं कि चुनाव में कौन-कौन से विषय मुद्दे के रूप में उछाले जाते हैं और किसके हित या विरोध में इनका इस्तेमाल होगा।
भू कानून में संशोधन
प्रदेश में भू कानून में संशोधन की मांग पहले से भी उठती रही है, लेकिन चुनाव से ठीक पहले इसने जोर पकड़ लिया। लोग हिमाचल प्रदेश की तर्ज पर भू कानून बनाने की पैरवी कर रहे हैं। कांग्रेस प्रदेश की भाजपा सरकार के विरुद्ध इस मुद्दे पर मुखर रही है। उसने तो यह तक घोषणा कर दी है कि सरकार बनने की स्थिति में इस कानून को वापस लिया जाएगा। उधर सरकार ने भू कानून में संशोधन को लेकर पूर्व मुख्य सचिव सुभाष कुमार की अध्यक्षता में समिति गठित की है। इस समिति ने सभी जिलाधिकारियों से भू कानून में दी गई छूट के संबंध में विवरण उपलब्ध कराने को कहा है। सबसे ज्यादा आपत्ति उस प्रविधान पर की जा रही है, जिसमें बाहरी व्यक्तियों को राज्य में 12.5 एकड़ से अधिक भूमि खरीद की अनुमति दी गई है। इसके अलावा शिक्षा, उद्योग्र पर्यटन, ऊर्जा सहित विभिन्न औद्योगिक व व्यावसायिक गतिविधियों के लिए भूमि खरीद में रियायत प्रदान की गई है। कांग्रेस के अलावा तमाम संगठन भी भू कानून में संशोधन की मांग कर रहे हैं। अब आचार संहिता लागू हो चुकी है और भू कानून में संशोधन पर फैसला अगली सरकार ही करेगी।
देवस्थानम प्रबंधन बोर्ड
प्रदेश की भाजपा सरकार दिसंबर 2020 में उत्तराखंड चारधाम देवस्थानम प्रबंधन अधिनियम लाई थी। इसके अंतर्गत चारधाम देवस्थानम प्रबंधन बोर्ड का गठन किया गया और इसमें चारधाम बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री व यमुनोत्री सहित 51 मंदिर शामिल किए गए। चारधाम के तीर्थ पुरोहित शुरुआत से ही इस अधिनियम व बोर्ड का विरोध कर रहे थे। त्रिवेंद्र सिंह रावत के मुख्यमंत्रित्वकाल में लाए गए इस अधिनियम पर पुनर्विचार की बात उनके पद से हटने के बाद मुख्यमंत्री बने तीरथ सिंह रावत ने कही, लेकिन अपने छोटे से कार्यकाल में तीरथ कुछ कर नहीं पाए। उनके बाद मुख्यमंत्री बने पुष्कर सिंह धामी ने मंत्रिमंडलीय उपसमिति की सिफारिश पर पिछले वर्ष 30 नवंबर को देवस्थानम बोर्ड और इससे संबंधित अधिनियम को वापस लेने की घोषणा की। दिसंबर में हुए विधानसभा सत्र में सरकार ने चारधाम देवस्थानम प्रबंधन अधिनियम निरसन विधेयक पारित कराया। इसके बाद देवस्थानम प्रबंधन बोर्ड भंग कर दिया गया और फिर चारधाम के लिए पूर्व व्यवस्था बहाल कर दी गई। भाजपा ने विधानसभा चुनाव से पहले ही कांग्रेस के इस बड़े मुद्दे की धार कुंद जरूर कर दी, लेकिन तय है कि कांग्रेस अब भी इसे चुनाव के दौरान यह कहकर उठाएगी कि सरकार ने उसके दबाव में निर्णय बदला।
पलायन, एक बड़ा सवाल
पलायन उत्तराखंड से जुड़ी एक बड़ी समस्या रही है। शिक्षा, स्वास्थ्य और सड़क जैसी मूलभूत सुविधाओं और रोजगार के अवसरों के अभाव ने पहाड़ से मैदान की ओर पलायन की समस्या को जन्म दिया। सरकारों के लिए यह बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। पहली बार त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने पलायन पर रोक की महत्वपूर्ण पहल करते हुए उत्तराखंड ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग का गठन किया। आयोग पलायन की स्थिति व कारणों को लेकर रिपोर्ट सरकार को सौंप चुका है। पलायन की समस्या की जड़ में वे तमाम विषय हैं, जिन पर विपक्ष सरकार को कठघरे में खड़ा करना चाहता है। इसलिए तय है कि पलायन इस चुनाव में एक बड़े मुद्दे के रूप में विपक्ष का हथियार होगा। कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दल शिक्षा व स्वास्थ्य क्षेत्र में विकास और रोजगार के अवसरों की अनुपलब्धता पर सवाल उठाते हुए सरकार पर निशाना साध रहे हैं। हालांकि भाजपा के पास इसका जवाब है। मसलन, सरकार ने आयोग की रिपोर्ट के बाद मुख्यमंत्री पलायन रोकथाम योजना आरंभ की। सीमांत क्षेत्रों में विकास व सामरिक महत्व को देखते हुए मूलभूत सुविधाओं के विकास व स्वरोजगार पर फोकस किया गया है। रिवर्स पलायन के लिए प्रवासियों को प्रेरित करने को कदम उठाए गए हैं। कोरोनाकाल में गांवों में लौटे प्रवासियों को मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना के जरिये यहीं थामे रखने की कोशिश की गई।
नौकरशाही का रवैया
उत्तराखंड में नौकरशाही की निरंकुशता हर समय चर्चा में रही है, सरकार चाहे कांग्रेस की हो या फिर भाजपा की। यह स्थिति राज्य गठन के बाद पहली ही सरकार के समय में आ गई थी। आम आदमी तो छोडि़ए, मंत्री और विधायक तक सार्वजनिक मंचों पर अधिकारियों के इस व्यवहार को लेकर अपना रोष जता चुके हैं। अगर मौजूदा भाजपा सरकार की ही बात की जाए तो कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत से लेकर कांग्रेस में लौट चुके यशपाल आर्य, अरविंद पांडेय, रेखा आर्य और अब भाजपा प्रदेश अध्यक्ष मदन कौशिक तक नौकरशाही की मनमानी का शिकार हो चुके हैं। सबसे नया मामला पिछले दिनों का है, जब कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत ने कैबिनेट की बैठक के दौरान इस्तीफे की धमकी देते हुए बैठक तक छोड़ दी थी। मंत्रियों-विधायकों द्वारा सार्वजनिक रूप से अधिकारियों के रुख पर टिप्पणी किए जाने के बाद सचिवालय प्रशासन की ओर से सभी अपर मुख्य सचिवों, प्रमुख सचिवों, सचिवों, मंडलायुक्तों, पुलिस महानिदेशक, जिलाधिकारियों और विभागाध्यक्षों को सख्त दिशा-निर्देश जारी किए गए। इस मुद्दे को भाजपा और कांग्रेस जैसे राजनीतिक दल शायद उठाएंगे नहीं, लेकिन कई सामाजिक संगठन इंटरनेट मीडिया के जरिये इस मुद्दे को उछाल रहे हैं।
ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैंण
चमोली जिले में स्थित गैरसैंण को राजधानी बनाए जाने की बात हर चुनाव से पहले कही जाती रही है। मौजूदा भाजपा सरकार ने मार्च 2020 में गैरसैंण में हुए विधानसभा सत्र के दौरान इसे ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने की घोषणा की और कुछ दिन बाद ही इस संबंध में शासन स्तर से आदेश भी हो गए। यह बात अलग है कि गैरसैंण में विधानसभा भवन व कुछ कार्यालय भवनों के अलावा राजधानी के लिए जरूरी आधारभूत ढांचा अब तक अस्तित्व में है ही नहीं। विपक्ष कांग्रेस का कहना है कि सत्ता में आने पर वे गैरसैंण को राजधानी बनाएंगे। कांग्रेस उत्तराखंड में 10 वर्षों तक सत्ता में रह चुकी है, लेकिन इस अवधि में उसने यहां विधानसभा सत्र के आयोजन के अलावा कोई बड़ा कदम उठाया नहीं। कांग्रेस इस मुद्दे को लेकर चुनाव में जाने की तैयारी कर रही है। अब तक के चार चुनावों में तो ऐसा महसूस हुआ नहीं कि इसने जनमत को बहुत अधिक प्रभावित किया, लेकिन भाजपा के गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बना देने के बाद कांग्रेस के लिए कुछ अलग स्टैंड लेना आवश्यक हो गया है, इसलिए उसके लिए यह मुद्दा रहेगा।
भाजपा की आंतरिक अस्थिरता
यूं तो भाजपा को अनुशासित पार्टी कहा जाता है लेकिन उत्तराखंड में पिछले लगभग दो साल इसे कई बार असहज स्थिति का सामना करना पड़ा। भाजपा के पिछले चुनाव में 70 में से 57 सीटें जीतने के बाद तय हो गया था कि कम से कम मामूली बहुमत या बाहरी समर्थन से चलने वाली सरकार को जिस अनिश्चतता का सामना करना पड़ता है, वैसे अब नहीं होगा। चार साल का कार्यकाल पूर्ण करने से ठीक नौ दिन पहले त्रिवेंद्र सिंह रावत के स्थान पर तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी गई। उन्हें चार महीने भी नहीं हुए, सरकार के नेतृत्व में फिर परिवर्तन कर दिया गया और युवा विधायक पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाया गया। चार महीने में दो-दो बार सरकार के नेतृत्व में बदलाव को कांग्रेस ने मुद्दे के रूप में लपक लिया। इसके अलावा पांच साल पहले कांग्रेस से भाजपा में आए दो नेताओं की घर वापसी और कैबिनेट मंत्री हरक सिंह को लेकर उठती रही चर्चाओं ने भी माहौल गर्माए रखा। मंत्रियों और भाजपा विधायकों के बीच की तकरार ने भी खूब सुर्खियां बटोरी। तय है कि इस सबको भाजपा की अंतर्कलह से जोड़ कांग्रेस इसका इस्तेमाल चुनाव में करेगी।
मुख्यमंत्री का चेहरा
विपक्ष कांग्रेस पांच साल में तीन मुख्यमंत्री को लेकर भाजपा पर हमलावर जरूर है लेकिन इसके साथ ही यह भी है कि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के चेहरे के साथ भाजपा चुनावी समर में उतर गई है। भाजपा में मुख्यमंत्री के चेहरे को लेकर किसी को कोई संदेह नहीं। यह बात अलग है कि चुनाव में भाजपा का सबसे बड़ा और जादुई चेहरा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही होंगे। कांग्रेस की स्थिति ठीक उलट है। कांग्रेस के प्रदेश चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष हरीश रावत पिछले कई महीनों से स्वयं को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने की मांग करते रहे हैं। पिछले दिनों उन्होंने इंटरनेट मीडिया में पोस्ट कर एक दांव चला, जिसने कांग्रेस में खासी हलचल भी मचाई। कांग्रेस हाईकमान ने रावत को चुनाव संचालन की पूरी जिम्मेदारी तो दे दी, मगर उन्हें मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किया। भाजपा इसे लेकर हरीश रावत पर निशाना साध चुटकी लेती रही है। इसके अलावा भाजपा अपने युवा मुख्यमंत्री धामी बनाम कांग्रेस के 73 वर्षीय खेवनहार हरीश रावत को भी मुद्दा बना रही है।
विकास का डबल इंजन
डबल इंजन के जरिये विकास के पथ पर तेजी से अग्रसर होता उत्तराखंड सत्तारूढ़ भाजपा के लिए इस चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा रहने वाला है। पांच वर्ष पूर्व विधानसभा चुनाव से ठीक पहले देहरादून में हुई जनसभा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पहली बार डबल इंजन का नारा दिया था। डबल इंजन, यानी केंद्र और राज्य में एक ही दल की सरकार, ताकि विकास योजनाओं के क्रियान्वयन में कोई बाधा नहीं आए। भाजपा के लिए यह एक तथ्यात्मक मुद्दा है क्योंकि उसके पास पिछले पांच वर्षों के दौरान राज्य में आरंभ हुई एक लाख करोड़ से अधिक की विकास परियोजनाओं का आंकड़ों सहित विवरण है। चारधाम आलवेदर रोड परियोजना, ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन का निर्माण, केदारनाथ धाम पुनर्निर्माण कार्य, भारत माला परियोजना समेत कई परियोजनाएं हैं, जिनमें पांच वर्ष की अवधि में तेजी से काम चल रहा है। भाजपा को पूरी उम्मीद है कि पिछले चुनाव के समय की गई योजनाओं को धरातल पर आकार लेता देख जनता का विश्वास डबल इंजन की सरकार पर बढ़ेगा। प्रधानमंत्री दिसंबर में देहरादून और हल्द्वानी में अपनी दो रैलियों में राज्य के लिए 35 हजार करोड़ से अधिक की विकास परियोजनाओं की घोषणा कर चुके हैं। इनमें दिल्ली-देहरादून आर्थिक गलियारा जैसी बड़ी परियोजना भी शामिल है। इस मुद्दे का जवाब देना कांग्रेस को भारी पड़ सकता है।
भ्रष्टाचार पर लगाम
भ्रष्टाचार के मामले और भ्रष्टाचार पर लगाम, यह सभी चुनावों में राजनीतिक दलों का पसंदीदा मुद्दा रहा है। हर बार इस मुद्दे पर सत्तारूढ़ दल बचाव की मुद्रा में नजर आता है और विपक्ष हमलावर। पिछले विधानसभा चुनाव में तो इस मुद्दे ने हरीश रावत सरकार को पार्टी में टूट के दौरान के स्टिंग, ब्रांड विशेष की शराब जैसे मुद्दों ने लगभग निरुत्तर कर दिया था। कांग्रेस के अब तक के सबसे कमजोर प्रदर्शन के मूल में कहीं न कहीं भ्रष्टाचार के आरोपों की अहम भूमिका रही। भाजपा की मौजूदा सरकार में धामी तीसरे मुख्यमंत्री हैं और उन्हें आचार संहिता लागू होने तक महज छह महीने का ही कार्यकाल मिला। इस अवधि में भ्रष्टाचार पर उन्हें घेरने की कांग्रेस की कोई खास मशक्कत नजर भी नहीं आई। हालांकि कांग्रेस चुनाव अभियान के मुखिया हरीश रावत उन्हें खनन प्रेमी कहकर कठघरे में खड़ा करने की कोशिश जरूर कर रहे हैं। धामी के पक्ष में यह बात जाती है कि पार्टी का मुख्यमंत्री का चेहरा होने के बावजूद उनके पूर्ववर्ती त्रिवेंद्र और तीरथ के मुख्यमंत्रित्वकाल के मुद्दों पर उन्हें घेरने की रणनीति शायद ही कांग्रेस के काम आए। इस सबके बीच लोकायुक्त कानून के अब तक प्रवर समिति से बाहर न निकल पाने का सवाल जिंदा है। दिलचस्प यह कि कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के अलावा सामाजिक संगठन भी इस मुद्दे पर शायद ज्यादा आवाज बुलंद करेंगे।
नए जिलों का गठन
उत्तराखंड जब अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आया, उस समय उत्तर प्रदेश से अलग होकर यहां 13 जिले बने। शुरुआत से ही उत्तराखंड में कुछ नए जिलों की मांग उठी। इस मांग को अहमियत दी 15 अगस्त 2011 को तत्कालीन मुख्यमंत्री डा रमेश पोखरियाल निशंक ने। उन्होंने स्वतंत्रता दिवस पर राज्य में चार नए जिलों कोटद्वार, यमुनोत्री, डीडीहाट और रानीखेत के निर्माण की घोषणा की। चार सप्ताह बाद ही निशंक को मुख्यमंत्री पद छोडऩा पड़ा तो नए जिले भी ठंडे बस्ते की ओर चल दिए। भुवन चंद्र खंडूड़ी दोबारा मुख्यमंत्री बने, नए जिलों का शासनादेश भी हुआ, लेकिन नए जिले जमीन पर नहीं उतर पाए। वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में भाजपा सत्ता से बेदखल हो गई और कांग्रेस के सत्ता में आने पर विजय बहुगुणा मुख्यमंत्री बने। फरवरी 2014 में हरीश रावत को बहुगुणा की जगह मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली। मार्च 2016 में कांग्रेस में बड़ी टूट के बाद हरीश रावत ने चार की जगह आठ नए जिलों के गठन की बात कही, लेकिन मामला हवा में ही तैरता रहा। कांग्रेस वर्ष 2017 में करारी हार के बाद सत्ता से बाहर हो गई। भाजपा की सरकार आई मगर पिछले पांच साल में ऐसा कुछ नहीं दिखा कि नए जिलों को लेकर सरकार कोई कदम उठा रही है। कांग्रेस इसे मुद्दा बनाएगी, लेकिन जिन जिलों के गठन की मांग उठ रही है, उनके अलावा शायद ही कहीं यह जनमत को प्रभावित कर पाए।
संगठन की ताकत
चुनाव चाहे लोकसभा का हो, विधानसभा का या फिर नितांत स्थानीय नगर निकाय या त्रिस्तरीय पंचायतों का, इनमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रहती है संगठन की। जो भी राजनीतिक दल सांगठनिक रूप से जड़ों तक विस्तृत होगा, चुनाव में उसकी संभावनाएं उतनी ही बेहतर होंगी। संगठन के पैमाने पर भाजपा और कांग्रेस, दोनों एक-दूसरे से टक्कर लेते दिखाई देते हैं। इनके मुकाबले सपा, बसपा, उक्रांद और आप कम से कम इस चुनाव में कहीं नहीं ठहरते। संगठन की मजबूती वैसे तो प्रत्यक्ष रूप से शायद ही किसी के लिए मुद्दा हो, लेकिन सच यह है कि हार-जीत में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका इसी की रहने वाली है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भाजपा अन्य सब पर भारी पड़ती है, हर कोई बखूबी जानता है। भाजपा का सांगठनिक ढांचा गांव-गांव तक फैला हुआ है। कांग्रेस ने इस बार भाजपा की अनुसरण की भरपूर कोशिश की है, यह नहीं मालूम उसे कितनी सफलता मिलती है। कांग्रेस ने तो नया दांव चलते हुए चुनाव से ठीक पहले संगठन में प्रदेश अध्यक्ष के साथ ही चार कार्यकारी अध्यक्ष तैनात किए हैं। हालांकि इसके मूल में जातीय व क्षेत्रीय संतुलन साधने की मंशा अधिक है। सांगठनिक क्षमता के मोर्चे पर किसकी रणनीति ज्यादा कारगर साबित होगी, यह नतीजों के बाद सामने आ जाएगा।
लोक लुभावन घोषणाएं
यह एक ऐसा मुद्दा है, जो हर चुनाव में इस्तेमाल होता है। लोक लुभावन घोषणाओं में सत्तासीन पार्टी की प्रदेश और केंद्र सरकार की वे सभी योजनाएं शामिल की जा सकती हैं, जो बड़े जन समूह को आकर्षित करने की क्षमता रखती हैं। पिछली प्रदेश सरकारों की बात करें तो स्थानांतरण कानून और भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए लोकायुक्त की व्यवस्था के अलावा राज्य में नए जिलों के गठन की घोषणा को इसमें शामिल किया जा सकता है। अब यह बात अलग है कि इनमें से कोई भी घोषणा अब तक तो पूरी हुई नहीं। भाजपा ने डबल इंजन की सरकार के नाम पर कई घोषणाएं की हैं, लेकिन इनमें से अधिकांश धरातल पर आकार भी ले रही हैं, तो इन पर तो विपक्ष कोई तर्क कर नहीं सकता। विपक्ष के अलावा इंटरनेट मीडिया में एक्टिव संगठन और दबाव समूह जनता को लुभाने वाली घोषणाओं को लेकर सरकार पर हमलावर रहते आए हैं, लेकिन चुनाव नतीजों के बाद अगले चार साल तक कोई इन पर चर्चा की जहमत नहीं उठाता। अब तक का अनुभव तो यही कहता है। आम आदमी पार्टी की फ्री बिजली, रोजगार, महिलाओं को निर्धारित धनराशि जैसी कई घोषणाओं ने इसमें नया अध्याय लिखा है।
शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, ढांचागत विकास
यह कोई एक मुद्दा नहीं, मूलभूत जरूरतों से जुड़े कई विषय हैं। इनकी उपलब्धता अगर सुनिश्चित हो जाए तो राजनीतिक दलों के कई मुद्दों का अस्तित्व ही खत्म हो जाए। उत्तराखंड जैसे विषम भूगोल वाले राज्य में तो ये और भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं। वैसे देखा जाए तो शिक्षा क्षेत्र में उत्तराखंड की छवि काफी बेहतर है। उत्तराखंड साक्षरता दर के पैमाने पर देश के अग्रणी राज्यों में शुमार है। राज्य की पहचान एजुकेशन हब के रूप में पहले से ही चली आ रही है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में स्थिति जरूर सोचनीय है। पर्वतीय क्षेत्र तो छोडि़ए, मैदान में भी चार-पांच शहरों के अलावा स्थिति अफसोजनक ही है। सड़क पर प्रसव कराती महिलाओं की तस्वीर असल कहानी बयान करती रहती हैं। सड़क संपर्क जरूर पिछले कुछ वर्षों में बेहतर हुआ है। चार धाम आलवेदर रोड जैसी परियोजनाओं ने कनेक्टिविटी को नई जान दी है। ढांचागत विकास इससे ही जुड़ा हुआ है। अगर ये सभी मूलभूत जरूरतें पूर्ण हो जाएंगी तो सवाल उठने अपने आप ही बंद हो जाएंगे।