उत्तराखंड चुनाव 2022: ये है राज्य का सबसे बड़ा मुद्दा, जिससे कराह रहे पहाड़; राजनीतिक दलों पर मतदाताओं की नजर
Uttarakhand Vidhan Sabha Election 2022 युवा उत्तराखंड के गांवों से युवाओं और अन्य जनों का निरंतर हो रहा पलायन। इसकी मार से पहाड़ तो कराह ही रहे मैदानी क्षेत्र के गांव भी अछूते नहीं हैं। दोनों ही जगह पलायन के कारण भिन्न-भिन्न हैं।
केदार दत्त, देहरादून। उत्तराखंड 21 बरस का हो चुका है। इस दौरान उसने कई क्षेत्रों में नए आयाम स्थापित किए तो तमाम विषय ऐसे भी हैं, जो आज तक सुलझ नहीं पाए हैं। इन्हीं में एक है युवा उत्तराखंड के गांवों से युवाओं और अन्य जनों का निरंतर हो रहा पलायन। इसकी मार से पहाड़ तो कराह ही रहे, मैदानी क्षेत्र के गांव भी अछूते नहीं हैं। दोनों ही जगह पलायन के कारण भिन्न-भिन्न हैं। यद्यपि, पलायन आयोग का गठन होने के बाद गांवों में पलायन की सही स्थिति और कारणों के तस्वीर सामने आने के बाद कुछ पहल हुई, लेकिन अभी रास्ता कठिन और लंबा है। जाहिर है कि पिछले चुनावों की भांति इस बार भी विधानसभा चुनाव की जंग में पलायन बड़ा मुद्दा बनकर उभरेगा। ऐसे में पलायन के विषय को लेकर सभी राजनीतिक दलों पर मतदाताओं की नजर रहेगी और वे सवालों की झड़ी भी लगाएंगे।
सीमांत प्रदेश के लिए ठीक नहीं पलायन
ज्ञानार्जन और तीर्थाटन के लिए तो पलायन ठीक कहा जा सकता है, लेकिन चीन और नेपाल की सीमा से सटे उत्तराखंड के गांवों में स्थिति यह हो चली कि एक बार जिसके कदम गांव से बाहर निकले तो फिर उसने वापस मुड़कर नहीं देखा। परिणामस्वरूप गांव खाली होते चले गए, जिसे इस सीमांत प्रदेश के लिए किसी भी दशा में उचित नहीं ठहराया जा सकता। यदि राज्य गठन के बाद से ही पलायन की रोकथाम के लिए थोड़े-थोड़े प्रयास ही किए गए होते तो इस समस्या से काफी हद तक पार पाया जा सकता था। साफ है कि राजनीतिज्ञों के लिए पलायन मुद्दा तो रहा, लेकिन उन्होंने इसके समाधान को कभी भी मजबूत इच्छाशक्ति नहीं दिखाई।
पलायन आयोग का गठन
पलायन को लेकर राज्य में बात तो निरंतर होती रही, लेकिन इसकी वास्तविक स्थिति के आधिकारिक आंकड़े ही नहीं थे। साफ है कि जब आंकड़े ही नहीं होंगे तो समाधान की दिशा में कैसे प्रयास होते। लंबी प्रतीक्षा के बाद त्रिवेंद्र सरकार के कार्यकाल में वर्ष 2018 में ग्राम्य विकास विभाग के अंतर्गत उत्तराखंड ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग का गठन हुआ। इस तरह का आयोग गठित करने वाला उत्तराखंड देश का पहला राज्य बना। आयोग ने प्रदेश की सभी ग्राम पंचायतों का सर्वे कर अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी। इसमें गांवों में पलायन की स्थिति और कारणों की तस्वीर सामने आई।
1702 गांव पूरी तरह निर्जन
पलायन आयोग की रिपोर्ट पर गौर करें तो राज्य गठन से लेकर अब पलायन के कारण पूरी तरह खाली हुए गांवों की संख्या बढ़कर 1702 हो गई है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि राज्य की 3946 ग्राम पंचायतों से 118981 व्यक्तियों ने स्थायी रूप से गांव छोड़ा, जबकि 6338 ग्राम पंचायतों से 383626 व्यक्तियों ने अस्थायी रूप से पलायन किया। रिपोर्ट बताती है कि यहां के गांवों से पलायन की दर 36.2 प्रतिशत है, जो राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है। राष्ट्रीय औसत 30.6 फीसद है।
मजबूरी का है ज्यादा पलायन
उत्तराखंड के गांवों में मूलभूत सुविधाओं के साथ ही शिक्षा व रोजगार के अवसरों के अभाव की वजह से गांवों से लोग पलायन को विवश हो रहे हैं। यदि गांवों में इन विषयों पर ध्यान दिया गया होता तो लोग अपनी जड़ों को नहीं छोड़ते। पलायन आयोग की रिपोर्ट देखें तो गांवों से 50.16 फीसद व्यक्तियों ने रोजगार, 15.21 प्रतिशत ने शिक्षा, 8.83 प्रतिशत ने स्वास्थ्य, 5.61 प्रतिशत ने वन्यजीवों द्वारा फसल क्षति, 5.44 प्रतिशत ने कृषि पैदावार में कमी, 3.74 प्रतिशत ने मूलभूत सुविधाओं का अभाव और 8.48 ने अन्य कारणों से पलायन किया।
गांवों पर ध्यान केंद्रित करना जरूरी
पलायन की रोकथाम के लिए गांवों में मूलभूत सुविधाओं का विकास और शिक्षा व रोजगार के अवसरों पर ध्यान केंद्रित करना जरूरी है। इसी मोर्चे पर सरकार की अनदेखी गांवों पर अब तक भारी पड़ती आ रही है। यह सही है कि इस राह में चुनौतियां कम नहीं हैं, लेकिन ऐसी नहीं कि इनसे पार न पाया जा सके। स्वयं पलायन आयोग ने भी सरकार को सौंपी अपनी रिपोर्ट में कम से कम 10 वर्ष तक गांवों पर ध्यान केंद्रित करने के साथ ही विभिन्न विभागों की योजनाओं को एकीकृत कर रोजगार, स्वरोजगार के अवसर सृजित करने का सुझाव दिया है। आयोग ने विभागवार योजनाओं के मद्देनजर कार्ययोजना तैयार करने के साथ ही जिलेवार योजनाएं भी सरकार को सौंपी हैं।
कोरोनाकाल में लौटी गांवों की रंगत
कोरोना संकट की देश में दस्तक के बाद प्रवासियों के लौटने का क्रम शुरू होने पर उत्तराखंड के गांवों में भी बंद पड़े घरों के दरवाजे खुले तो रौनक भी लौटी। मार्च 2020 से 30 सितंबर 2020 तक यहां के गांवों में देश के विभिन्न हिस्सों में रह रहे 3.52 लाख लोग लौटे थे। यद्यपि, बाद में परिस्थिति ठीक होने पर करीब तीन लाख लोग फिर से वापस लौट गए थे। वर्ष 2021 में कोरोना की दूसरी लहर में भी प्रवासी फिर वापस आए, लेकिन बाद में चले भी गए। अच्छी बात ये हे कि अभी भी काफी संख्या में प्रवासी अपने गांवों में जमे हैं। साथ ही प्रवासियों का आना-जाना भी गांवों में लगा हुआ है।
ठोस पहल की है जरूरत
पलायन आयोग की सिफारिश पर सरकार ने मुख्यमंत्री पलायन रोकथाम योजना की शुरुआत की। इसके अंतर्गत प्रथम चरण में उन गांवों को लिया गया, जहां से 50 प्रतिशत लोग पलायन कर चुके हैं। इसके लिए साढ़े तीन सौ गांव चिह्नित किए गए। योजना में धनराशि भी स्वीकृत हुई, लेकिन कार्य न होने के कारण इसे सरेंडर करना पड़ा। इसी तरह स्वरोजगार के लिए मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना में विभिन्न विभागों की रोजगारपरक योजनाओं को एक छतरी के नीचे लाया गया। पहले वर्ष इसके अंतर्गत पांच हजार व्यक्तियों को स्वरोजगार से जोडऩे का लक्ष्य रखा गया, लेकिन यह हासिल नहीं हो पाया। इस वर्ष के लक्ष्य का अभी कोई अता-पता नहीं है। साथ ही मुख्यमंत्री सीमांत क्षेत्र विकास योजना भी कारगर सिद्ध नहीं हो पाई है।
रिवर्स पलायन पर हो फोकस
पलायन से जूझते उत्तराखंड के गांवों में रिवर्स पलायन के लिए प्रवासियों को प्रोत्साहित करने पर फोकस करना जरूरी है। प्रवासी गांव लौटकर यहीं अपना उद्यम अथवा व्यवसाय स्थापित कर स्वयं के साथ ही दूसरों को भी रोजगार दें, ऐसी नीति धरातल पर उतारने की जरूरत है। अब तक की तस्वीर देखें तो प्रदेशभर में रिवर्स पलायन करने वाले तीन हजार से ज्यादा लोग कृषि, पशुपालन, होम स्टे, दुकान, होटल आदि उद्यमों से जुड़े हैं। यद्यपि, उन्हें स्वयं का व्यवसाय स्थापित करने को बैंकों से ऋण लेने में दिक्कतें भी उठानी पड़ी हैं। इस दिशा में भी सोचना जरूरी है।
सवाल तो लोग पूछेंगे ही
विधानसभा चुनाव के आलोक में देखें तो सभी राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों के साथ ही सभी की जबान पर पलायन का मुद्दा है। सभी पलायन की रोकथाम के लिए खाका लिए घूम रहे हैं, लेकिन पिछले अनुभवों से संशय के बादल भी हैं। राज्य के प्रत्येक चुनाव में पलायन का विषय उठता आया है, लेकिन इसके निदान को क्या हुआ सभी जानते हैं। इसे देखते हुए मतदाता तो राजनीतिज्ञों से प्रश्न तो करेंगे कि वे पलायन पर अब तक मौन क्यों रहे या फिर उन्होंने इसके लिए क्या किया। ऐसे एक नहीं अनेक प्रश्नों की झड़ी राजनीतिज्ञों के सामने लगेगी, इसमें संदेह नहीं है।
पलायन कहां से कहां
-19.46 प्रतिशत ने नजदीकी कस्बों में
-15.18 प्रतिशत ने जिला मुख्यालय में
-35.69 प्रतिशत सूबे के अन्य जिलों में
-28.72 प्रतिशत ने उत्तराखंड से बाहर
-0.96 ने देश से बाहर
आयु वर्ग में पलायन
आयु वर्ग, प्रतिशत
25 वर्ष से कम, 28
26 से 35, 42
35 वर्ष से अधिक, 29
निर्जन हो चुके गांव
जिला, संख्या
पौड़ी, 517
अल्मोड़ा, 162
बागेश्वर, 147
टिहरी, 146
हरिद्वार, 122
चम्पावत, 109
चमोली, 106
पिथौरागढ़, 98
रुद्रप्रयाग, 93
उत्तरकाशी, 83
नैनीताल, 66
ऊधमसिंहनगर, 33
देहरादून, 27
जनसंख्या में वृद्धि एवं कमी
(2011 की जनगणनानुसार)
जिला, पुरुष, महिला
पौड़ी, (-14331), (-19225)
अल्मोड़ा, (-6449), (-10018)
टिहरी, 364, 1816
रुद्रप्रयाग, 261, 1971
चमोली, 6000, 6370
पिथौरागढ़, 9309, 4655
बागेश्वर, 5203, 3877
चम्पावत, 17833, 12373
उत्तरकाशी, 16422, 16952
देहरादून, 73923, 71676
ऊधमसिंहनगर, 115657, 115384
हरिद्वार, 101605, 97307
नैनीताल, 42586, 46784
उत्तराखंड ग्राम्य विकास और पलायन आयोग के उपाध्यक्ष डा. एसएस नेगी ने कहा, गांवों से पलायन की रोकथाम के लिए अभी बहुत लंबा सफर तय होना बाकी है। काफी मेहनत करनी होगी। विशेषकर, गांवों में मूलभूत सुविधाओं के विकास के साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार के विषयों पर ध्यान केंद्रित करना आवश्यक है। आयोग ने इस संबंध में सरकार को सुझाव दिए हैं। उम्मीद है आने वाली सरकार इस दिशा में अत्यधिक गंभीरता से कदम उठाएगी।
यह भी पढ़ें- आखिर क्यों सियासत की गलियों से गुम है सैरगाह, उत्तराखंड में अधर में हैं पर्यटन विकास की योजनाएं