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राजनीतिक दलों के एजेंडे में आखिर पर्यावरण मुद्दा क्यों नहीं, जानिए क्या कहते हैं उत्तराखंड के पर्यावरणविद्

Uttarakhand Election 2022 राजनीतिक दलों ने राज्य के 81.43 लाख भाग्य विधाता मतदाताओं को लुभाने के लिए तमाम मुद्दे उछालने भी शुरू कर दिए हैं लेकिन एक बात हर किसी को कचोट रही है। वह ये कि राजनीतिक दलों के एजेंडे में पर्यावरण मुद्दा क्यों नहीं।

By Raksha PanthriEdited By: Published: Sat, 22 Jan 2022 01:38 PM (IST)Updated: Sat, 22 Jan 2022 01:38 PM (IST)
राजनीतिक दलों के एजेंडे में आखिर पर्यावरण मुद्दा क्यों नहीं, जानिए क्या कहते हैं उत्तराखंड के पर्यावरणविद्
राजनीतिक दलों के एजेंडे में आखिर पर्यावरण मुद्दा क्यों नहीं।

राज्य ब्यूरो, देहरादून। Uttarakhand Election 2022 उत्तराखंड में पांचवीं विधानसभा चुनाव के लिए रणभेरी बज चुकी है। राजनीतिक दलों ने राज्य के 81.43 लाख भाग्य विधाता मतदाताओं को लुभाने के लिए तमाम मुद्दे उछालने भी शुरू कर दिए हैं, लेकिन एक बात हर किसी को कचोट रही है। वह ये कि राजनीतिक दलों के एजेंडे में पर्यावरण मुद्दा क्यों नहीं। वह भी तब जबकि नैसर्गिक सुंदरता से परिपूर्ण उत्तराखंड देश के पर्यावरण को संजोये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

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इस दृष्टि से नजर दौड़ाएं तो राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 71.05 प्रतिशत वन भूभाग है। प्रकृति की ओर से वन रूपी अमूल्य निधि यहां की सभ्यता, संस्कृति व समृद्धि का प्रतीक है। वन प्राकृतिक सौंदर्य में चार चांद लगाने के साथ ही पर्यावरण को प्रदूषित होने से रोकने के साथ ही जलवायु को संयत रखते हैं। यहां के वन नाना प्रकार की जीवनदायिनी जड़ी-बूटियों का बड़ा भंडार भी हैं। भूमि व जल संरक्षण और वन्यजीवों में वनों की भूमिका किसी से छिपी नहीं है।

पर्यावरण संरक्षण में राज्य के योगदान पर चर्चा करें तो आक्सीजन का विपुल भंडार यह राज्य देश को तीन लाख करोड़ से अधिक की पर्यावरणीय सेवाएं दे रहा है। इसमें अकेले वनों की भागीदारी सालाना एक लाख करोड़ रुपये से अधिक है। यही नहीं, राज्य में पर्यावरण का मतलब पर्यटन के जरिये यहां की आर्थिकी से भी जुड़ा है। दूसरा पहलू ये भी है कि पर्यावरण और विकास के मध्य सामंजस्य का अभाव प्रदेश पर भारी पड़ रहा है। इस परिदृश्य के बीच राजनीतिक दलों के बीच पर्यावरण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे की अनदेखी को किसी भी दशा में ठीक नहीं कहा जा सकता।

ईको टूरिज्म के लिए महत्वपूर्ण

जैव विविधता के लिए समृद्ध उत्तराखंड में पर्यावरण का महत्व ईको टूरिज्म से भी है, जो यहां की आर्थिकी से जुड़ा विषय है। मैदान, पहाड़ और उच्च हिमालयी क्षेत्र के भूगोल को स्वयं में समेेटे राज्य के जंगलों, संरक्षित क्षेत्रों और उच्च हिमालयी क्षेत्र में प्रकृति से छेड़छाड़ किए बगैर पर्यटन गतिविधियों यानी ईको टूरिज्म पर जोर दिया जा रहा है। इसके सार्थक परिणाम भी आए हैं। वन्यजीव पर्यटन के लिए कार्बेट टाइगर रिजर्व आज भी विश्वभर के सैलानियों की पहली पसंद है तो उच्च हिमालयी क्षेत्र हमेशा से पर्वतारोहण व टै्रकिंग के लिए आकर्षण का केंद्र है। इसके साथ ही अन्य संरक्षित क्षेत्रों, आरक्षित वन क्षेत्रों, वन पंचायतों में ईको टूरिज्म ने नई संभावनाओं के द्वार खोले हैं।

वन और जन के रिश्तों में खटास

उत्तराखंड में पर्यावरण का संरक्षण यहां की परंपरा का हिस्सा है। एक दौर में लोग वनों से अपनी जरूरत पूरी करने के साथ ही जंगलों को पनपाने में अपनी सक्रिय भूमिका निभाते थे। वर्ष 1980 में वन अधिनियम के अस्तित्व में आने के बाद वनों से मिलने वाले हक-हकूक पर आरी चली तो वन और जन के प्रगाढ़ रिश्तों में कुछ खटास भी आई है। बावजूद इसके जंगलों का संरक्षण राज्यवासियों की प्राथमिकता से दूर नहीं हुआ है। इसी का सुखद परिणाम है कि राष्ट्रीय पशु बाघ और राष्ट्रीय विरासत पशु हाथी के संरक्षण में राज्य अग्रणी भूमिका निभा रहा है। ऐसी ही स्थिति दूसरे वन्यजीवों के मामले में है, वह भी तब जबकि हर साल वन्यजीवों के बढ़ते हमले चिंता का सबब बने हैं।

विकास योजनाओं में बाधा

वन एवं पर्यावरण से जुड़े कानूनों की जटिलताओं के कारण राज्यवासी तमाम दिक्कतें तो झेल ही रहे, यहां के विकास कार्य भी प्रभावित हो रहे हैं। धार्मिक, राष्ट्रीय व सामरिक महत्व वाली आलवेदर रोड परियोजना इसका उदाहरण है। पर्यावरणीय कारणों से इसका एक हिस्सा लंबे समय लटका रहा, जिसकी बाधाएं अब जाकर दूर हुई हैं। इसी तरह वन कानूनों के कारण राज्य गठन से अब तक लगभग 300 सड़कों के प्रस्ताव धरातल पर आकार नहीं ले पाए। ऐसी ही स्थिति पानी, बिजली समेत अन्य मूलभूत सुविधाओं से जुड़ी योजनाओं को लेकर भी है। कारण ये कि 71.05 प्रतिशत भूभाग वन होने के कारण विकास योजनाओं के लिए वन भूमि हस्तांतरण को खासी मशक्कत करनी पड़ती है।

राज्य के लिए चुनौती भी कम नहीं

पर्यावरण महत्वपूर्ण है तो विकास भी आवश्यक है। इस दृष्टिकोण से देखें तो राज्य के लिए चुनौतियां भी कम नहीं हैं। इसके एक नहीं अनेक उदाहरण हैं। यदि कोई परियोजना स्वीकृत होती है तो इसके पर्यावरणीय पहलुओं को लेकर सबसे पहले चर्चा होती है। कई बार मामले अदालतों, राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में जाने के कारण लंबे समय तक लटके रहते हैं। इसके चलते कई योजनाएं धरातल पर आकार नहीं ले पातीं। वह भी तब जबकि यह स्थापित नियम है कि यदि किसी परियोजना या योजना के लिए वन भूमि ली जा रही है तो वहां से हटने वाले पेड़ों के सापेक्ष 10 गुणा अधिक पौधारोपण किया जाएगा।

दुधारी तलवार है ईको टूरिज्म

उत्तराखंड की बेहतरीन आबोहवा और प्रकृति के मनोहारी दृश्यों का आनंद लेने के साथ ही वेलनेस के लिए बड़ी संख्या में लोग यहां पहुंचते हैं। यही नहीं, उच्च हिमालयी क्षेत्रों में साहसिक पर्यटन गतिविधियों के लिए पर्वतारोही, ट्रैकर्स आते हैं। यह सब दुधारी तलवार की तरह भी है। सैलानियों के लिए खुली सड़कों के साथ ही अन्य सुविधाएं जुटाना चुनौती है तो पर्यटकों द्वारा उच्च हिमालयी क्षेत्र में छोड़ दिया जाने वाल प्लास्टिक समेत अन्य कचरा दुश्वारियां भी खड़ी करता है। ऐसे में पर्यटन सुविधाओं के विकास व पर्यावरण में सामंजस्य की चुनौती भी है।

पर्यावरण संरक्षण के साथ हो विकास

उत्तराखंड में ऐसी नीतियों की आवश्यकता है, जो पर्यावरण संरक्षण में सहायक सिद्ध हों और विकास का पहिया भी निरंतर चलता रहे। इसके लिए जरूरी है कि पर्यावरण और विकास में बेहतर सामंजस्य स्थापित किया जाए। पारिस्थितिकी और आर्थिकी को साथ जोड़कर देखना होगा। समझना होगा राज्य की बेहतरी के लिए ये दोनों ही आवश्यक हैं और इसी को ध्यान में रखते हुए हर स्तर पर आगे बढ़ना होगा।

पर्यावरण के नाम पर नहीं मांगे गए वोट

प्रत्येक विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्रों में पर्यावरण संरक्षण को शामिल तो करते हैं, लेकिन कोई चुनाव ऐसा नहीं रहा, जब पर्यावरण के मुद्दे पर वोट मांगे गए हों। असल में पर्यावरण से जुड़े तीन सबसे अहम बिंदु हवा, मिट्टी व पानी प्रकृति की देन हैं। इनकी बिगड़ती सेहत को लेकर मुट्ठीभर लोग आवाज तो उठाते हैं, लेकिन यह जनता की आवाज आज तक नहीं बन पाए। इसे लेकर चेतना जागृत करने की दिशा में ठोस पहल नहीं हो पाई। ऐसे में वोट का विषय न बनने के कारण राजनीतिक दलों ने चुनाव के दौरान मानव को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले पर्यावरण रूपी विषय को शायद ही कभी छुआ हो। यही वजह भी है कि राजनीतिक दलों ने कभी पर्यावरण को ध्यान में रखकर वोट मांगे हों, या फिर जनता ने इस आधार पर मताधिकार का प्रयोग किया हो, ऐसा नजर नहीं आता। अब जबकि कोरोनाकाल ने पर्यावरण के महत्व को रेखांकित किया है तो उम्मीद जानी चाहिए कि राजनीतिक दलों के साथ ही मतदाता भी पर्यावरण संरक्षण को लेकर अधिक गंभीर होंगे।

उत्तराखंड में वन क्षेत्र

-53483 वर्ग किमी राज्य का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल

-37999.60 वर्ग किमी कुल अधिसूचित वन क्षेत्र

-25863.18 वर्ग किमी वन क्षेत्र वन विभाग के अधीन

-4768.704 वर्ग किमी वन क्षेत्र राजस्व विभाग के अंतर्गत

-7168.502 वर्ग किमी वन क्षेत्र का प्रबंधन वन पंचायतों के पास

-156.444 वर्ग किमी वन क्षेत्र निजी व अन्य संस्थाओं के अधीन

बोले पर्यावरणविद

हेस्को के संसाथापक पद्मभूषण पर्यावरणविद् अनिल जोशी ने कहा, विश्व में जिस तरह की घटनाएं हो रही हैं, मौसम समय के अनुसार व्यवहार नहीं कर रहा है। इन संकेतों को समझने की जरूरत है। ये सभी पर्यावरण के महत्वपूर्ण कारकों हवा, मिट्टी व पानी से जुड़े हैं। इनके प्रति यानी पर्यावरण के प्रति सजग होना समय की मांग है। जहां तक राजनीतिक दलों की बात है तो वे वही बात करते हैं, जिनसे वोट मिलता हो। जनता के बीच से गिने-चुने लोग ही पर्यावरण की बात उठाते हैं, यदि राज्यवासी इसके लिए हो हल्ला मचाएं तो इसे चुनाव का मुद्दा बनाने में मदद मिलेगी।

पाणी राखो आंदोलन के संस्थापक पर्यावरणविद् सच्चिदानंद भारती ने बताया कि उत्तराखंड राज्य की मांग के मूल में जल-जंगल-जमीन का मुद्दा मुख्य रूप से केंद्र में था। जंल, जंगल, जमीन ही जीवन का आधार हैं। आज की परिस्थिति में बाजारवाद इतना हावी हो गया है कि पर्यावरण से जुड़ा महत्वपूर्ण मुद्दा गौण सा हो गया है। इसीलिए पर्यावरण चुनावी मुद्दा नहीं बन पाया है। ऐसे में जरूरी है कि जनता को जागरूक किया जाए। इससे राजनीतिक दलों को विवश किया जा सकता है।

बोले राजनेता

भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मदन जोशी का कहना है, पर्यावरण संरक्षण को लेकर भाजपा बेहद संवेदनशील है। पर्यावरण और विकास के मध्य बेहतर सामंजस्य हो, यह हमारी प्राथमिकता है। पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील और विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले इस राज्य में यह बेहद जरूरी भी है। इस दिशा में हम पूरी गंभीरता के साथ आगे बढ़ रहे हैं और तमाम विकास योजनाएं इसका उदाहरण हैं।

उत्तराखंड प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष गणेश गोदियाल ने कहा, उत्तराखंड में विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता है। विकास के बगैर आम जनता को मिलने वाली सुविधाओं और सेवाओं में सुधार नहीं हो सकता। इसके अभाव में पहाड़ से पलायन बढ़ रहा है। विकास की आवश्यकता की पूर्ति में पर्यावरणीय दृष्टि से भी सोचा जाना बेहद आवश्यक है। कांग्रेस भी इस विषय को लेकर संवेदनशील है।

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