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उत्तराखंड लोकसभा चुनावः जनरल खंडूड़ी की विरासत पर शिष्य का कब्जा

पूर्व मुख्यमंत्री एवं सांसद मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूड़ी (सेनि) के बेटे और शिष्य की बीच चली सियासी जंग में शिष्य ने बाजी मारी और उनकी सियासी विरासत पर कब्जा किया।

By BhanuEdited By: Published: Fri, 24 May 2019 10:47 AM (IST)Updated: Fri, 24 May 2019 12:20 PM (IST)
उत्तराखंड लोकसभा चुनावः जनरल खंडूड़ी की विरासत पर शिष्य का कब्जा
उत्तराखंड लोकसभा चुनावः जनरल खंडूड़ी की विरासत पर शिष्य का कब्जा

देहरादून, राज्य ब्यूरो। उत्तराखंड की सियासत के दिग्गज पूर्व मुख्यमंत्री एवं सांसद मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूड़ी (सेनि) ने भले ही इस मर्तबा पौड़ी सीट से चुनाव न लड़ा हो, मगर यहां की सियासत उनके इर्द-गिर्द ही घूमती रही। पौड़ी की जंग में एक तरफ उनके शिष्य भाजपा प्रत्याशी तीरथ सिंह रावत और दूसरी तरफ उनके पुत्र कांग्रेस प्रत्याशी मनीष खंडूड़ी मैदान में थे। 

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हालांकि, इस विचित्र स्थिति के चलते जनरल खंडूड़ी तटस्थ बने रहे। पूरे चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने न किसी सभा में शिरकत की और न शिष्य व पुत्र किसी के पक्ष में कोई अपील ही जारी की। अलबत्ता, पहली बार लोकसभा की चुनावी जंग में तीरथ सिंह रावत ने बड़े अंतर से जीत दर्ज कर जनरल खंडूड़ी की विरासत हासिल करने में सफलता पाई। 

सियासत में नवप्रवेशी मनीष खंडूड़ी को पिता की विरासत का लाभ नहीं मिल पाया और उन्हें करारी हार का सामना करना पड़ा। सूरतेहाल, इस परिस्थिति के चलते अग्नि परीक्षा से खंडूड़ी को ही गुजरना है। शिष्य की जीत पर उन्हें इसका यश मिला है, मगर पुत्र की हार पर अफसोस भी होगा।

सेना से सेवानिवृत्ति के बाद जनरल खंडूड़ी पिछले तीन दशक से यहां की सियासत में सक्रिय हैं। उत्तराखंड में भाजपा के लिए खंडूड़ी जरूरी हैं और उन्होंने भी पार्टी को अपना शत-प्रतिशत दिया है। स्वास्थ्य संबंधी कारणों के चलते इस मर्तबा वह पौड़ी सीट से चुनाव मैदान में नहीं उतरे। 

हालांकि, भाजपा नेतृत्व ने पौड़ी सीट पर उनकी पसंद के अनुरूप उनके शिष्य एवं पार्टी के राष्ट्रीय सचिव तीरथ सिंह रावत को मैदान में उतारा। भले ही यह पार्टी की रणनीति का हिस्सा रहा हो, मगर चुनाव में अग्नि परीक्षा तो जनरल खंडूड़ी की ही थी।

विचित्र स्थिति तब पैदा हुई, जब जनरल खंडूड़ी के पुत्र मनीष खंडूड़ी ने कांग्रेस का दामन था और कांग्रेस ने उन्हें पौड़ी सीट से उतार दिया। चुनाव में एक तरफ खंडूड़ी के शिष्य और दूसरी तरफ उनके पुत्र के बीच मुकाबला था। दोनों में ही खंडूड़ी की विरासत को हासिल करने की जंग छिड़ी हुई थी। 

दोनों ने ही जनरल आशीर्वाद खुद के साथ होने का दावा किया, मगर जनरल खंडूड़ी इस उलझन को देखते हुए पूरे चुनाव में तटस्थ बने रहे। वह न तो किसी सभा में आए और न किसी के पक्ष में कोई अपील ही जारी की। 

खंडूड़ी की विरासत हासिल करने की जंग में शिष्य ने बाजी मारी और पुत्र को पराजय का स्वाद चखना पड़ा। हालांकि, अब जबकि नतीजे आ चुके हैं, तब भी जनरल खंडूड़ी की उलझन कम नहीं हुई है। जीत- हार का यश और अपयश उन्हीं के सिर आया है। शिष्य के जीतने से वह खुश होंगे, लेकिन पहली सियासी पारी में ही पुत्र की हार का उन्हें अफसोस होगा।

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