तंत्र के गण: दून अस्पताल की इस जोशीली टीम को सलाम, पढ़िए पूरी खबर
उत्तराखंड में कोरोना के खिलाफ सबसे बड़ी जंग दून मेडिकल कॉलेज अस्पताल से लड़ी गई। राज्य के प्रमुख सरकारी चिकित्सालयों में शुमार इस अस्पताल में कोरोना संक्रमित 3675 मरीज भर्ती हुए। जिनमें करीब 94 फीसद स्वस्थ हो चुके हैं।
जागरण संवाददाता, देहरादून। उत्तराखंड में कोरोना के खिलाफ सबसे बड़ी जंग दून मेडिकल कॉलेज अस्पताल से लड़ी गई। राज्य के प्रमुख सरकारी चिकित्सालयों में शुमार इस अस्पताल में कोरोना संक्रमित 3675 मरीज भर्ती हुए। जिनमें करीब 94 फीसद स्वस्थ हो चुके हैं। अस्पताल के प्राचार्य डॉ. आशुतोष सयाना से लेकर चिकित्सक, नॄसग स्टाफ और अन्य सभी स्वास्थ्य कर्मियों का इसमें बहुत बड़ा योगदान है। पर कुछ साइलेंट योद्धा ऐसे भी हैं, जो कोरोना से इस लड़ाई में चुपचाप अपना काम कर रहे हैं। बिना इनके एक दिन भी काम चलाना मुश्किल है।
महेंद्र भंडारी ने खड़ी कर ली योद्धाओं की फौज
कोरोना से लड़ाई में सबसे बड़ी भूमिका निभा रहे हैं महेंद्र भंडारी। भंडारी अस्पताल के रेडियो टेक्नोलॉजिस्ट हैं। अस्पताल के सभी विभागों और कर्मचारियों के बीच समन्वय का काम इन्हीं के जिम्मे है। सुबह छह से लेकर रात एक बजे तक अस्पताल में जो भी हो रहा है, उसे तय करने में भंडारी की सबसे बड़ी भूमिका है। कोरोना की ड्यूटी में लगे कर्मचारियों के खाने से लेकर रहने तक कि व्यवस्था भंडारी ने देखी। किसी के घर या कोई व्यक्तिगत परेशानी हो तो उसका समाधान भी उन्हीं के जिम्मे रहा। आपसी प्यार और सौहार्द से उन्होंने अस्पताल में एक ऐसी टीम का निर्माण कर लिया है, जो तमाम मुश्किलों, परेशानियों और खतरों के बीच पूरी ऊर्जा और जोश के साथ 24 घंटे काम कर रही है। उनका प्रबंधन अस्पताल के डॉक्टरों और प्राचार्य के भी खूब काम आ रहा है। हर दिन उच्च अधिकारियों के साथ तय हुई रणनीति को धरातल पर उतरना भी उनका काम है।
24 घंटे अस्पताल को समर्पित
महेंद्र और उनकी पूरी टीम 24 घंटे अस्पताल के लिए समर्पित है। संदीप राणा, अभय नेगी, गौरव, बसंती नेगी, जसलीन कौर, सचिन, आंनद, कमल नेगी, सुरेश पांडे, प्रदीप पोखरियाल, विराट इस टीम के ऐसे सिपाही हैं, जो अपनी जान जोखिम में डालकर हमारी सलामती के लिए जुटे हुए हैं। कोरोनाकाल में यह युवा टीम बहुत मददगार बनी है। शुरुआती चरण में जब कोरोना संक्रमित मरीज की मौत पर स्वजन भी दाह संस्कार को आने से बच रहे थे, इन्होंने अपनों की तरह कई मरीजों की अंतिम क्रिया कराई। यही नहीं, अस्पताल में भर्ती मरीजों व उनके स्वजनों के बीच संवाद का भी जरिया भी वह बने। इसके अलावा कई छोटे-छोटे काम भी यह अपने ही स्तर पर निपटा ले रहे हैं। जज्बा ऐसा कि छह-सात माह घर का मुंह नहीं देखा। इनमें कई लोग खुद संक्रमित हुए, पर स्वस्थ होते ही फिर पूरी तत्परता के साथ काम पर लौट आए।
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