बदलने लगी वन महकमे की सोच, वन्यजीवों पर रेडियो कॉलर लगाकर हो रहा व्यवहार का अध्ययन
उत्तराखंड में वन विभाग ने हाथी गुलदार जैसे जानवरों पर रेडियो कॉलर लगाकर उनके व्यवहार का अध्ययन शुरू किया गया है। यानी जो कार्य राज्य गठन के वक्त से शुरू होना चाहिए था वह अब हो रहा है।
देहरादून, केदार दत्त। कहावत है जब जागो तभी सवेरा, मगर तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। सवेरा आंतरिक हो अथवा बाहरी, जब तक आप खुद नहीं देखना चाहेंगे, तब तक दुनिया की कोई ताकत आपको जगा नहीं सकती। 71.05 प्रतिशत वन भूभाग वाले उत्तराखंड में वन-वन्यजीवों के संरक्षण का जिम्मा उठाए वन महकमे का हाल कुछ-कुछ ऐसा ही है। विशेषकर गुलदार, हाथी जैसे वन्यजीवों के व्यवहार में निरंतर आ रहे बदलाव के मामले में। उत्तराखंड बनने के 20 साल बात महकमे को इसका एहसास हुआ कि बेजुबान आक्रामक हो रहे हैं। इसे देखते हुए हाथी, गुलदार जैसे जानवरों पर रेडियो कॉलर लगाकर उनके व्यवहार का अध्ययन शुरू किया गया है। यानी, जो कार्य राज्य गठन के वक्त से शुरू होना चाहिए था, वह अब हो रहा है। यदि ऐसी पहल हो जाती तो आज उत्तराखंड में मानव-वन्यजीव संघर्ष चिंताजनक स्थिति में नहीं पहुंचता। खैर, अब महकमा जागा है तो इसके सकारात्मक नतीजे आएंगे।
करीब से करें वन्यजीवों का दीदार
वन्यजीव विविधता के लिए प्रसिद्ध उत्तराखंड के छह राष्ट्रीय उद्यान, सात अभयारण्य और चार कंजर्वेशन रिजर्व सैलानियों के स्वागत को तैयार हैं। कोरोना संकट के कारण मार्च से बंद इन संरक्षित क्षेत्रों के पर्यटन जोन के अलावा चिडिय़ाघरों के दरवाजे गुरुवार से खुलने शुरू हो गए। पहले दिन ही चिड़ियाघरों समेत संरक्षित क्षेत्रों में जिस तरह से वन्यजीव प्रेमी उमड़े, उससे महकमे की बांछें खिली हैं। हालांकि, कोविड की चुनौती भी बरकरार है, लेकिन सभी जगह सुरक्षित शारीरिक दूरी समेत अन्य नियमों का पालन कराया जा रहा है। धीरे-धीरे जब राजाजी नेशनल पार्क और कार्बेट का ढिकाला जोन खुलेंगे तो पर्यटकों का दबाव बढ़ेगा। इसके लिए इसी हिसाब से तैयारियां की जानी आवश्यक हैं। मसलन, डे-विजिट के लिए उपयोग में लाए जा रहे वाहनों और नाइट स्टे के लिए वन विश्राम भवनों का नियमित सैनिटाइजेशन आवश्यक है। साथ ही पर्यटकों को खुद भी कोविड के नियमों का अनुपालन करना होगा।
झिलमिल झील के भी बहुरेंगे दिन
उत्तराखंड में स्थित देश के पहले कंजर्वेशन रिजर्व आसन वेटलैंड को रामसर साइट में जगह मिलने से अब झिलमिल वेटलैंड के दिन बहुरने की भी उम्मीद जगी है। हरिद्वार के चिडिय़ापुर में है झिलमिल झील। इसका दलदली क्षेत्र, उत्तराखंड में बारहसिंगों का एकमात्र घर है। करीब 3800 हेक्टेयर में फैली झिलमिल झील का क्षेत्र न सिर्फ बारहसिंगों के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि यहां हिरण की पांच प्रजातियों समेत हाथी, बाघ, गुलदार जैसे वन्यजीव भी हैं। झिलमिल में देशी, विदेशी परिंदों की लगभग 200 प्रजातियां चिह्नित हैं। सर्दियों में यहां भी काफी संख्या में प्रवासी परिंदे पहुंचते हैं। बारहसिंगों के इस प्राकृतिक वासस्थल के सिकुड़ने की बात सामने आने पर 2005 में सरकार ने इसे कंजर्वेशन रिजर्व घोषित किया। साथ ही वहां पारिस्थितिकीय तंत्र को बनाए रखने को पहल हो रही हैं। अब उम्मीद की जा रही है कि सरकार झिलमिल को रामसर साइट में लाने के लिए प्रभावी कदम उठाएगी।
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ग्रामीण सहभागिता से पिरुल का उपयोग
उत्तराखंड के जंगलों से हर साल निकलने वाला करीब 23 लाख मीट्रिक टन पिरुल यानी चीड़ की पत्तियां अब खतरे का सबब नहीं बनेंगी। पिरुल को संसाधन के तौर पर लेते हुए इससे रोजगार से जोड़ने का त्रिवेंद्र सरकार ने निश्चय किया है। पिरुल से बिजली, कोयला बनाने के मद्देनजर इकाइयां स्थापित होने लगी हैं। इनमें पिरुल की कमी न हो, इसके लिए स्थानीय ग्रामीणों की सहभागिता सुनिश्चित की गई है। सरकार ने चीड़ के जंगलों से पिरुल एकत्रीकरण पर ग्रामीणों को दी जाने वाली प्रोत्साहन राशि सौ रुपये प्रति क्विंटल से बढ़ाकर दो सौ रुपये कर दी है। संबंधित कंपनियां और फर्म यह पिरुल डेढ़ सौ रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से खरीदेंगी। इस प्रकार पिरुल से ग्रामीणों को प्रति क्विंटल साढ़े तीन सौ रुपये की आमदनी होगी। जाहिर है कि इस पहल से जंगलों से पिरुल साफ होगा, वहीं वनों के संरक्षण में जनभागीदारी भी सुनिश्चित हो सकेगी।
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