शहीद की मौसेरी सास ने बयां किया कश्मीर से पलायन का दर्द
शहीद विभूति शंकर ढौंडियाल की मौसेरी सास गिरीजा वारिको कश्मीर से पलायन के दर्द से अछूती नहीं हैं। उन्हें आज भी याद है कि परिवार को किन परिस्थितियों में कश्मीर से पलायन करना पड़ा।
देहरादून, जेएनएन। आतंकवाद के चलते कश्मीरी पंडित करीब तीन दशक से विस्थापन का दंश झेल रहे हैं। 90 के दशक में यह लोग अपना घर-बार छोड़कर चले आए और उस वक्त नरसंहार में सैकड़ों पंडितों का कत्लेआम हुआ। शहीद विभूति शंकर ढौंडियाल की मौसेरी सास गिरीजा वारिको भी इस दर्द से अछूती नहीं हैं। उन्हें आज भी याद है कि उनके परिवार को किन परिस्थितियों में कश्मीर से पलायन करना पड़ा।
अब उसी कश्मीर में आतंकियों से लोहा लेते उनका दामाद शहीद हो गया। इन हालात में गिरीजा का गुस्सा चरम पर था। उन्होंने कहा, आतंकियों और उनके सरपरस्तों को ऐसी चोट दें, जो उनकी पीढ़ियां याद करें। उन्हें उन्हीं की भाषा में जबाव दीजिए। सेना पर पत्थर बरसाने वाले या बंदूक उठाने वालों के लिए नरमी कैसी। अब भी निर्णायक कदम नहीं उठाया तो हमारे बच्चे यूं ही मरते रहेंगे। वो अगर बंदूक से हल चाहते हैं तो यही सही।
1990 का वह भयावह दौर याद कर गिरिजा कहती हैं कि कश्मीर के प्रत्येक हिंदू घर पर एक नोट चिपका दिया गया था, जिस पर लिखा था- कश्मीर छोड़ के नहीं गए तो मारे जाओगे। कश्मीरी पंडितों के घर जलाए गए, महिलाओं का बलात्कार हुआ और बच्चों को सड़क पर लाकर उनका कत्ल कर दिया गया। कश्मीरी पंडितों को सुनियोजित ढंग से प्रताडि़त किया गया और पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित छद्म युद्ध के कारण वह अपने ही घर से बेदखल हो गए।
आतंक का यह चेहरा अब कहीं ज्यादा भयावह हो चुका है। हम एक के बदले दस सिर लाने की बात करते हैं, पर इसका ठीक उलट हुआ है। आतंकी एक मरता है और हमारे कई जवानों को अपनी जान गंवानी पड़ती है। जिससे कई घरों के चिराग बुझ गए हैं। कश्मीर के स्थानीय युवा हाथों में बंदूक लिए हैं और हम न जाने क्यों हमदर्दी दिखा रहे हैं।
उन्होंने कहा कि अब वक्त आ गया है कि इस ओर निर्णायक कदम उठाए जाएं। यह जान लीजिए कि कश्मीरी ही उग्रवादियों को पनाह दे रहे हैं। ऐसे में न केवल आतंकी बल्कि उनके मददगारों का भी चुन चुनकर सफाया करना होगा। हमारे नेता कहते हैं कि बदला लिया जाए, पर सवाल ये कि यह होगा कब।
दोस्त बोले, इरादों के पक्के थे मेजर विभूति
शहीद मेजर की अंतिम विदाई में वह तीन दोस्त भी पहुंचे, जो लंबे समय से विभूति के संपर्क में नहीं थे, मगर स्कूल व कॉलेज की पढ़ाई उन्होंने साथ की थी। नम आंखों से अपने यार को विदाई देते हुए वे बोले, विभूति इरादों के पक्के थे।
अरुण कोटनाला, सिद्धार्थ तनेजा और सौरभ गुप्ता ने पाइनहॉल स्कूल से शहीद विभूति के साथ 12वीं पास की। इसके बाद डीएवी पीजी कॉलेज में भी सभी साथ ही पढ़े। अरुण बताते हैं कि विभूति इरादों के पक्के थे, जिस बात को ठान लेते थे, उसे पूरा करके ही दम लेते थे। उनका बस एक ही सपना था कि सेना में जाकर देश की सेवा करनी है।
हालांकि वह आरआइएमसी से लेकर एनडीए तक में प्रवेश पाने में असफल रहे थे। जब उन्होंने सीडीएस की परीक्षा दी तो वह भी इसका हिस्सा रहे। सभी अटेंप्ट पूरे होने के बाद दोस्तों ने विभूति को सलाह दी कि उन्हें अपनी राह बदल देनी चाहिए। इसी के अनुरूप अरुण कोटनाला ने निजी कंपनी में नौकरी शुरू कर दी, जबकि सिद्धार्थ मर्चेंट नेवी में चले गए और सौरभ ने व्यवसाय संभाल लिया।
हालांकि इरादों के पक्के विभूति को कुछ और मंजूर नहीं था। वह अपनी राह छोडऩे को तैयार नहीं हुए और आखिरकार उन्होंने ओटीए के माध्यम सेना का हिस्सा बनने में सफलता हासिल कर ही ली। सिद्धार्थ और सौरभ ने बताया कि विभूति बेहद हंसमुख स्वभाव के थे और एक सैन्य अधिकारी बनने के बाद भी उनके मिजाज में जरा भी सख्ती नहीं थी।
यह भी पढ़ें: जांबाज विभूति कहते थे, देश के लिए खतरे मोल लेने से बढ़कर कोर्इ काम नहीं
यह भी पढ़ें : देश रक्षा को हमेशा आगे रहे शहीद मोहनलाल, जानिए उनकी जिंदगी से जुड़े पहलू