उत्तराखंड में शिक्षा की हालत सुधारने के नाम पर फिर नए प्रयोग
सरकारी शिक्षा को बदहाली से निजात नहीं मिल रही है। हालत सुधारने के नाम पर नए प्रयोग जमकर किए जा रहे हैं। शिक्षा की गुणवत्ता का यक्ष प्रश्न इन प्रयोगों में उलझकर रह गया है।
देहरादून, रविंद्र बड़थ्वाल। सरकारी शिक्षा को बदहाली से निजात नहीं मिल रही है। हालत सुधारने के नाम पर नए प्रयोग जमकर किए जा रहे हैं। शिक्षा की गुणवत्ता का यक्ष प्रश्न इन प्रयोगों में उलझकर रह गया है। सरकारी स्कूलों में बेहतर भविष्य का रास्ता नजर नहीं आने के कारण अभिभावक अपने पाल्यों को पब्लिक स्कूलों में भेजना पसंद कर रहे हैं।
राज्य बनने के बाद से सरकारी प्राइमरी स्कूलों में छात्रों की संख्या 50 फीसद से ज्यादा गिर चुकी है। यही स्थिति माध्यमिक स्कूलों की भी है। ऐसे में निजी स्कूलों को टक्कर देने को हर ब्लॉक में दो सरकारी इंटर कॉलेजों को अंग्रेजी माध्यम में संचालित करने की घोषणा शिक्षा मंत्री अरविंद पांडेय ने की।
पिछली कांग्रेस सरकार ने भी दो प्राथमिक, एक उच्च प्राथमिक और दो माध्यमिक स्कूलों को मॉडल स्कूल बनाने की योजना लागू की थी। यह योजना अच्छे परिणाम आने के इंतजार में अब भी घिसट रही है।
आश्वासन तक सीमित एक मांग
स्वत: सत्रांत लाभ शिक्षकों के लिए झुनझुना साबित हो रहा है। यह समस्या लंबे समय से सुलझने को तरस गई है। सरकारें आ-जा रही हैं, खूब वायदे-आश्वासन मिल रहे हैं। समस्या जस की तस है। शिक्षकों की मांग है कि उन्हें स्वत: सत्रांत लाभ दिया जाए। इस मांग के पीछे तर्क ये है कि शिक्षकों के बीच शैक्षिक सत्र में सेवानिवृत्त होने का असर बच्चों की पढ़ाई पर पड़ता है। नई नियुक्तियों में समय लगता है।
शिक्षकों को स्वत: सत्रांत लाभ देने की पहले व्यवस्था थी। बाद में इसे समाप्त कर दिया गया। अब शिक्षकों को सेवानिवृत्ति से तकरीबन छह माह पहले सत्र लाभ के लिए आवेदन करना होता है। साथ में स्वस्थता प्रमाणपत्र की शर्त अनिवार्य है। इन शर्तों की भूल-भुलैया में अक्सर सत्र लाभ के लिए शिक्षक महीनों चक्करघिन्नी बन रहे हैं। शिक्षा मंत्री और सचिव के कई दफा आश्वासन के बाद भी यह मांग अधर में है।
अपनों से बढ़ गईं उम्मीदें
कोरोना संकट शिक्षा पर भारी पड़ रहा है। शिक्षण संस्थाएं तो बंद हैं हीं, शिक्षा को लेकर सरकार के बजट पर भी कैंची चलेगी। कक्षा एक से बारहवीं तक केंद्रपोषित समग्र शिक्षा अभियान के बजट आवंटन को लेकर केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के प्रोजेक्ट अप्रूवल बोर्ड की बैठक में यही संकेत दिए गए।
चालू शैक्षिक सत्र के बजट में कमी आई तो शिक्षा की गुणवत्ता के साथ ही स्कूलों में संसाधन जुटाने की मुहिम पर असर पडऩा तय है। सबसे बड़े महकमे शिक्षा में राज्य के बजट का बड़ा हिस्सा वेतन पर खर्च होता है। राज्य की खुद की आमदनी खस्ताहाल है।
ऐसे में निगाहें अपनों पर यानी केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक पर टिकी हैं। उम्मीद की जा रही है कि राज्य की परिस्थितियों को समझबूझकर वह बजट में कुछ राहत देंगे। उन्होंने हिमालयी राज्यों की चिंता को ध्यान में रखने का भरोसा दिया है।
सरकारी अंकुश की दबी हसरत
उच्च शिक्षा महकमे और सहायताप्राप्त अशासकीय डिग्री कॉलेजों में तनातनी आम है। दोनों गाहे-बगाहे एकदूसरे को निशाने पर लेते रहते हैं। सरकार इन कॉलेजों में शिक्षकों और कर्मचारियों के वेतन का खर्च उठाती है। इस वजह से इनकी स्वच्छंदता या यूं कहिए मनमानी, महकमे को खटकती रहती है।
प्रदेश के कुल 18 सहायताप्राप्त अशासकीय डिग्री कॉलेजों में 17 सिर्फ गढ़वाल मंडल में हैं और हेमवतीनंदन बहुगुणा गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय से संबद्ध हैं। इन कॉलेजों पर अंकुश लगाने की चाहत पर केंद्रीय विश्वविद्यालय का पेच आड़े आ रहा है। तमाम कोशिशों के बावजूद कॉलेज राज्य विश्वविद्यालय से संबद्धता लेने को तैयार नहीं हो रहे।
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कॉलेजों में नियुक्तियां हों या अन्य व्यवस्था, सरकार का हस्तक्षेप केंद्रीय विश्वविद्यालय की वजह से और कम हो चुका है। कॉलेज मौज में हैं। परेशानहाल सरकार इन कॉलेजों को काबू में लाने के नुस्खे ढूंढ रही है। कुछ नुस्खे हाथ लगे हैं। इन्हें जल्द आजमाने की तैयारी है।
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