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उत्तराखंड के युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और उम्मीदों का पहाड़, पलायन है बड़ी समस्या

करीब चार माह पहले जब तीरथ सिंह ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी तब राज्य की सियासी हवा में क्यों हुआ कैसे हुआ जैसे प्रश्न तैर रहे थे। इससे पहले कि इन सवालों के जवाब उत्तराखंडियों को मिलते फिर भाजपा हाईकमान ने पुष्कर सिंह धामी पर दांव लगा दिया।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Wed, 07 Jul 2021 10:03 AM (IST)Updated: Wed, 07 Jul 2021 10:07 AM (IST)
उत्तराखंड के युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और उम्मीदों का पहाड़, पलायन है बड़ी समस्या
नए मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के पास सात माह ही बचे हैं काम के लिए। फाइल

देहरादून, कुशल कोठियाल। पुष्कर सिंह धामी उत्तराखंड के 11वें और भाजपा के इस कार्यकाल के तीसरे मुख्यमंत्री बन गए हैं। युवा नेता के प्रदेश की कमान संभालने के साथ ही प्रदेशवासियों की उम्मीदों का जवान होना लाजिमी है। कोरोना से बेपटरी हुए विकास कार्य, शिक्षा, उद्योग और पर्यटन को चुनाव के लिए बचे सात महीनों में गति देना आसान नहीं।

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उत्तराखंड जैसे भौगोलिक विषमता वाले राज्य में नेता का युवा होना सकारात्मक बिंदु है, लेकिन यहां प्रशासनिक अनुभव के महत्व को भी नकारा नहीं जा सकता है। धामी पहली बार सरकार में कोई जिम्मेदारी संभाल रहे हैं और वह भी सीधे मुख्यमंत्री की। उन्हें कैबिनेट में अच्छे तजुर्बेकार सहयोगी मिले हैं, वह इनका कितना सहयोग ले पाएंगे, इस बारे में किंतु-परंतु के बीच शुभकामना ही दी जा सकती है। हालांकि प्रशासनिक अनुभव न होने के बावजूद बड़ी जिम्मेदारी बखूबी निभाने वालों के कई उदाहरण देश-प्रदेश में मौजूद हैं।

सियासी हवा में तैरते सवाल : करीब चार माह पहले जब तीरथ सिंह रावत ने शपथ ली थी, तब राज्य की सियासी हवा में क्यों हुआ, कैसे हुआ जैसे प्रश्न तैर रहे थे। इससे पहले कि इन सवालों के जवाब उत्तराखंडियों को मिलते, फिर भाजपा हाईकमान ने युवा नेता पर दांव लगा दिया। संवैधानिक विवशता का हवाला देते हुए किया गया यह परिवर्तन भी चर्चा का विषय बना हुआ है। आम जन के गले यह बात नहीं उतर रही कि इस तरह के पेच का पता भाजपा जैसी संगठित और सुनियोजित पार्टी को तब क्यों नहीं चला जब गैर विधायक तीरथ को ताज सौंपा गया। कांग्रेसी तो अभी से बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को इसी कानूनी पेच से फंसाने की आशंका जताने लगे हैं। प्रदेश में भाजपा का ट्रैक रिकार्ड देखें तो मुख्यमंत्रियों को बदलना कोई नहीं बात नहीं है।

राज्य की स्थापना के समय गठित अंतिरम विधानसभा में पार्टी ने नित्यानंद स्वामी को मुख्यमंत्री बनाया। तब भी संगठन में खुल के असंतोष सामने आया था। तब पार्टी विधायकों ने भगत सिंह कोश्यारी को स्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में जाने से रोक दिया था। ढाई साल के कार्यकाल वाली अंतरिम विधानसभा में भी हाईकमान ने स्वामी को हटा कर अंतिम चार माह के लिए भगत सिंह कोश्यारी को मुख्यमंत्री बना दिया था। 2007 के विधानसभा चुनाव में जब बहुमत मिला, तब भी तीन बार मुख्यमंत्री बदले गए। पहले मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) भुवन चंद्र खंडूरी, फिर डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक और फिर भुवन चंद्र खंडूरी। 2017 के चुनाव में ऐतिहासिक बहुमत मिला तो फिर तीन मुख्यमंत्री। पहले त्रिवेंद्र सिंह रावत, तीरथ सिंह रावत और अब पुष्कर सिंह धामी। भाजपा जैसी पार्टी के सामने बार-बार मुख्यमंत्री बदलने की मजबूरी क्यों आती है, यह प्रश्न तो लोग पूछ ही रहे हैं। प्रदेश में भाजपा ही एक ऐसी राष्ट्रीय पार्टी रही, जिसका प्रांतीय संगठन राज्य के गठन से पहले ही काम कर रहा था। राज्य गठन का श्रेय भी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को जाता है। फिर भी अभी तक राज्यस्तरीय व्यक्तित्व और नेतृत्व खोजने के लिए प्रयोग पर प्रयोग जारी हैं। राज्य के हित में है कि यह सिलसिला थमे।

कांग्रेस का अतीत भी इतर नहीं : बार-बार मुख्यमंत्री बदलने को लेकर भाजपा का मखौल उड़ा रही कांग्रेस भी अपने अतीत पर इतरा नहीं सकती है। प्रदेश में कांग्रेस को भी जब सत्ता में आने का मौका मिला तो नेतृत्व को लेकर अस्थिरता कायम रही। अलबत्ता वर्ष 2002 से 2007 तक का कांग्रेस कार्यकाल इसका अपवाद माना जा सकता है। एनडी तिवारी पांच साल तक जमे रहे। यह कार्यकाल अस्थिरता भरा न रहा हो, यह नहीं कहा जा सकता। हरीश रावत समर्थक विधायकों ने तिवारी सरकार आज गई, अब गई का माहौल बनाए रखा। यह तिवारी का व्यक्तित्व था कि उन्हें कोई हिला नहीं पाया। वर्ष 2012 में कांग्रेस को फिर सरकार बनाने का मौका जनता ने दिया। पहले विजय बहुगुणा और फिर हरीश रावत को मुख्यमंत्री बनाया गया।

जमीनी हकीकत से दूरी : भाजपा- कांग्रेस के कई नेता तो मुख्यमंत्री के बदलने को सरकार का बदलना तक नहीं मानते हैं। अस्थिरता से इसे जोड़ा जाना उन्हें राजनीतिक पूर्वाग्रह लगता है। तर्क है कि अगर पांच साल तक सरकार भाजपा की ही है और मुख्यमंत्री तीन बदल गए तो अस्थिरता कहां है। वास्तव में नेताओं की यह जमात जमीनी हकीकत से जाने -अनजाने दूरी बनाए हुए है। उत्तराखंड जैसा सीमांत राज्य जो हमेशा राष्ट्रीय राजनीति की मुख्यधारा में रहा है, अपने राज्य और राज्य की सरकार से भावनात्मक रूप से भी जुड़ा रहता है। मुख्यमंत्री किस पार्टी से है बेशक इसका महत्व है, लेकिन मुख्यमंत्री कौन है और कब तक है यह भी राज्यवासियों के लिए कम अहम सवाल नहीं है। राज्य में दम-खम रखने वाली दोनों पार्टियां दूसरे सवाल को कम महत्व देती रही हैं।

मुख्यमंत्री को विधानमंडल दल की बैठक में विधायक चुनते हैं, यह संवैधानिक व्यवस्था दोनों दलों के लिए महज औपचारिकता भर रह गई है। विधायकों की बैठक में हाईकमान की पर्ची पर लिखा नाम ही सबको स्वीकार करना होता है। जब नित्यानंद स्वामी मुख्यमंत्री बने, तब विधायकों का समर्थन तो भगत सिंह कोश्यारी के पास था। जब एनडी तिवारी और विजय बहुगुणा मुख्यमंत्री बने, तब भी अधिकतर विधायकों का समर्थन हरीश रावत के साथ था। विधायक मुख्यमंत्री चुनते हैं, यह प्रविधान कितना धरातलीय है, सब जानते हैं। यह भी अनुभव में आया है कि राज्य भर में अच्छे नेटवर्क वाले दोनों दल राज्य का मुखिया चुनते समय जनता की राय को भी हाशिये पर रखते रहे हैं। कई बार तो योग्यता, नेतृत्व क्षमता, चरित्र, लोकप्रियता, चुनावी कौशल, दलीय निष्ठा पर पार्टी हाईकमान के अपने समीकरण भारी पड़ जाते हैं। जब प्रयोग विफल होते दिखने लगता है, तब मुख्यमंत्री बदल दिया जाता है। यह भी देखा गया कि कार्यकाल के पहले दौर में वफादार चुना जाता है, लेकिन चुनाव करीब आते ही जिता सकने वाले की तलाश होती है। बाद वाले के लिए यह कांटो भरा ताज जैसा होता है। उत्तराखंड की पहली सरकार में भगत सिंह कोश्यारी को सरकार चलाने को अंतिम पांच माह मिले। तीसरी विधानसभा के कार्यकाल में भुवन चंद्र खंडूरी को अंतिम सात माह मिले। वर्तमान में पुष्कर सिंह धामी के पास भी काम के लिए सात माह ही बचे हैं।

असंतोष का तूफान फिलहाल शांत : धामी के नाम की घोषणा होते ही पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेता अपनी नाराजगी और निराशा सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करने से नहीं चूके। सतपाल महाराज, डॉ. हरक सिंह रावत, बिशन सिंह चुफाल जैसे वरिष्ठ नेताओं को मनाने के लिए प्रदेश के बड़े नेताओं को ही नहीं, पार्टी हाईकमान को भी सक्रिय होना पड़ा और साझा प्रयास कामयाब हुए। अब माहौल शांत है। युवा मुख्यमंत्री सबको साथ लेकर चलने की कोशिश करते हुए दिख भी रहे हैं। यह आगे समय ही बताएगा कि यह फौरी विराम है या स्थायी समन्वय। जो असंतोष दिखाई दिया और जहां से दिखाई दिया, उसके मंतव्य भी भिन्न-भिन्न थे। एक तो उन दिग्गजों ने निराशा दिखाई, जो इस बार मुखिया की कुर्सी के लिए खुद का नंबर देख रहे थे। दूसरे उन्होंने अंसतोष जताया जिन्हें कैबिनेट में फिर जगह मिलने पर संशय था या कम महत्व मिलने की आशंका थी, क्योंकि प्रदेश भाजपा की गुटीय राजनीति में धामी उतने तटस्थ नहीं रहे, जितने तीरथ। विरोध दिखा कर वे अपनी जगह और महत्व को भाजपा में उच्चस्तरीय मान्यता दिलाने में कामयाब रहे। तीसरा फैक्टर उस आधी भाजपा का भी है, जो पिछले कुछ वर्षो के दौरान कांग्रेस छोड़ पार्टी में आई है। 12 सदस्यीय इस कैबिनेट में पांच सदस्य वही हैं। भविष्य में कहीं भी वे उपेक्षित और बाहरी न समङो जाएं, इसलिए ताकत का अहसास कराने का इससे बेहतर क्या मौका हो सकता था। खैर, अब सबने मिल कर पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व में राज्य के विकास के लिए काम करने का संकल्प लिया है, लिहाजा किसी आशंका को उठाना विपक्ष का काम या नकारात्मक दिमाग की उपज ही कही जाएगी। चुनाव की दहलीज पर खड़े नेताओं के हित में भी यह नहीं है, यह वे भी भलीभांति समझते हैं।

उत्तराखंड में तीरथ सिंह रावत के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने और पुष्कर सिंह धामी के नए मुख्यमंत्री बनने की बात प्रदेश की जनता के लिए कोई नई नहीं है। इस्तीफों की यह परंपरा उसी दिन से चली आ रही है जब प्रथम मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी ने त्यागपत्र दिया था। इसमें कोई दो मत नहीं कि नौ नवंबर, 2000 को उत्तर प्रदेश से पृथक हुए उत्तराखंड को विकसित और सुविधाओं से परिपूर्ण देखने की चाह प्रदेश के लोगों में अब भी शेष है। पलायन आज इस पहाड़ी राज्य की बड़ी समस्या बन गई है। आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली में लाखों पहाड़ी लोग बसे हुए हैं। बुराड़ी और संतनगर तो दूसरे उत्तराखंड जैसे हो गए हैं। जहां पलायन से एक राज्य की संस्कृति और रीति-रिवाजों पर संकट मंडरा रहा है वहीं दूसरे राज्य भी बढ़ती जनसंख्या का बोझ ङोल रहे हैं। इससे कई परेशानियां उत्पन्न हो रही हैं-संसाधनों की आपूíत से लेकर पर्यावरण प्रदूषण तक।

आंकड़ों के अनुसार उत्तराखंड के 3,946 गांवों से करीब 1,18,981 लोगों ने स्थायी रूप से पलायन कर लिया है। घरों पर लटके ताले और मकड़ियों के जाले एक अलग व्यथा व्यक्त कर रहे हैं। इस पलायन पर रोक तभी लग सकती है जब वहां विकास होगा और लोगों तक उन मूलभूत सुविधाओं-स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार की पहुंच होगी, जिनकी चाह में वे विवश होकर अपनी जन्मभूमि को छोड़ बड़े शहरों की ओर रुख कर रहे हैं। और ये सुविधाएं उन तक तभी पहुंच पाएंगी, जब प्रदेश में एक स्थिर सरकार होगी, पर यहां तो स्थिति ही डगमग है। पिछले चार विधानसभा चुनावों में 11 मुख्यमंत्रियों की नियुक्ति बेहद दुखद है। आज जनता को भी नहीं पता है कि आगे उनके प्रदेश की कमान किसके हाथों में रहेगी। उत्तराखंड हर प्राकृतिक संपदा से परिपूर्ण है। इनका इस्तेमाल कर इस पहाड़ी राज्य के विकास की गाथा लिखी जानी चाहिए। अब नए मुख्यमंत्री को अपना ध्यान प्रदेश की जनता की बुनियादी समस्याओं पर केंद्रित करना चाहिए।

[राज्य संपादक, उत्तराखंड]


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