सरकारी और निजी क्षेत्र की जुगलबंदी होगी तभी होगा कारगर इलाज
देहरादून के सरकारी अस्पताल बड़ी आपदा से निपटने को तैयार नहीं हैं। बीते दौर में कई घटनाओं ने अस्पतालों की पोल खोल दी है।
निजी अस्पतालों की बहुलता के बीच शहर में सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति भी कुछ हद तक ठीक कही जा सकती है। अलबत्ता, कुछ चुनौतियां हैं, जिनसे हमें पार पाना होगा। दिव्यांग नौनिहालों की सेवा में जुटे समाजसेवी विनय कुमार सैनी का कहना है कि सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर और पैरामेडिकल स्टाफ मानकों के अनुरूप नहीं हैं। दून में डॉक्टरों के 346 पदों में 193 रिक्त हैं। नर्स और फार्मासिस्ट की स्थिति फिर भी बेहतर है।
अपने शहर को शानदार बनाने की मुहिम में शामिल हों, यहां करें क्लिक और रेट करें अपनी सिटी
एक बड़ी चुनौती यह है कि सरकारी तंत्र में विशेषज्ञ चिकित्सकों की उपलब्धता कम है। मसलन, सरकारी अस्पतालों में कार्डियोलॉजिस्ट नहीं है। न्यूरो सर्जन मात्र दून मेडिकल में हैं। ओंकोलॉजिस्ट अब जाकर मिला। रेडियोलॉजिस्ट की कमी का ही नतीजा है कि महिला अस्पताल में अल्ट्रासाउंड की कई-कई दिन की वेटिंग रहती है। ऐसे में लोगों की निजी सेक्टर पर निर्भरता बढ़ रही है। आवश्यकता इस बात की है कि इस गैप को कम किया जाए। निजी सहभागिता से ही सही सप्ताह में कुछ दिन विशेषज्ञों की सेवा सरकारी अस्पतालों में ली जा सकती है।
डॉक्टर और लोगों का होना चाहिए संयमित व्यवहार
विनय कहते हैं कि डॉक्टर या क्लीनिक पर हिंसा आज एक ज्वलंत विषय है। स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए एक बड़ी चुनौती है, पर दून में तुलनात्मक रूप से स्थिति बेहतर है। यहां डॉक्टरों के व्यवहार को लेकर बहुत ज्यादा शिकायतें नहीं हैं। इससे इतर कुछ समस्याएं जरूर हैं।
दरअसल, मरीज को बेहतर इलाज देने के लिए एक डॉक्टर को समय देना पड़ता है, मगर सरकारी अस्पतालों की दशा यह है कि घंटों लाइन में लगने के बाद डॉक्टर मरीज को सिर्फ कुछ मिनट ही दे पाते है, जबकि एक मरीज की जिज्ञासा होती है कि, वह अपनी हर तकलीफ डॉक्टर को बताए और बीमारी के बारे में पूर्ण जानकारी पाए।
डॉक्टर पूरा समय नहीं देता तो मरीज को लगता है कि वह उनकी समस्या पर गौर ही नहीं कर रहा और उन्हें सिर्फ निपटा रहा है। प्राइवेट सेक्टर में आए दिन हंगामे की सूचनाएं आती है। डॉक्टर को भी समझना चाहिए कि अगर मरीज की स्थिति ठीक नहीं है और उनके यहां इलाज नहीं हो सकता तो तुरंत सही जानकारी परिजनों को देकर अच्छे अस्पतालों में रेफर कर दें।
वहीं लोगों को भी इस बात को समझने की जरूरत है कि कोई भी डॉक्टर यह नहीं चाहता है कि उसके मरीज की मौत हो। वह अंतिम समय तक मरीज को बचाने की कोशिश करता है। ऐसे में डॉक्टर और लोगों दोनों को ही संयमित व्यवहार रखना चाहिए।
पैरामेडिकल स्टाफ की तरफ भी ध्यान दीजिए
विनय के अनुसार सभी को इलाज मुहैया कराने के लिए डॉक्टर, नर्स और पैरामेडिकल स्टाफ भी पर्याप्त संख्या में होने चाहिए। केवल डॉक्टर से काम नहीं चलेगा, लेकिन शहर में चिकित्सा के नाम पर लगातार स्थापित हो रही इमारतों के भीतर की कहानी बेहद स्याह है। पूरा अस्पताल महज एक-दो प्रशिक्षित पैरामेडिकल स्टाफ के भरोसे चल जाता है।
इसके अलावा कई झोलाछाप भी लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ कर रहे हैं। निजी नर्सिंग होम और अस्पतालों को क्लीनिकल एस्टेब्लिशमेंट एक्ट के दायरे में लाया जाना था। लेकिन करीब डेढ़ साल बाद भी विभाग इसे लागू नहीं कर पाया है। इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। निजी क्षेत्र में डॉक्टरों के अलावा पैरामेडिकल स्टाफ की योग्यता पर भी ध्यान देना होगा। हेल्थकेयर के मोर्चे पर सरकारी और निजी क्षेत्र की जुगलबंदी ही कारगर इलाज है।
इमरजेंसी सेवाओं को सुदृढ़ करने की आवश्यकता
वह कहते हैं कि सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं पर बेशक प्रति वर्ष करोड़ों रुपये खर्च किए जा रहें हो, मगर हकीकत में तमाम छोटे से बड़े स्तर के सरकारी अस्पताल सिर्फ आने वाले मरीजों का प्राथमिक उपचार ही कर पाने में सक्षम हैं। किसी भी बीमारी के भयावह होने की स्थिति में उसे रेफर कर दिया जाता है।
इमरजेंसी मामलों में भी मरीज निजी अस्पताल पर निर्भर रहते हैं। रात के समय सरकारी अस्पताल में इमरजेंसी में जाना, समझो व्यर्थ भटकना ही है। इस समय न तो चिकित्सक ढंग से देखता है और न ही स्टाफ सीधे मुंह बात करता है। आईसीयू के नाम पर केवल दून मेडिकल कॉलेज में पांच बेड हैं। सीटी स्कैन के अलावा रात में अन्य जांच की भी सुविधा नहीं है। महिला अस्पताल में तीन में दो वेंटिलेटर खराब पड़े हैं।
सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि इमरजेंसी सेवाओं की क्या स्थिति है। व्यक्ति को हारकर निजी अस्पताल का रुख करना पड़ता है, जहां इलाज करा पाना किसी सामान्य शख्स के बूते से बाहर है। ऐसे में इमरजेंसी सेवाओं को सुदृढ़ करने की आवश्यकता है।
ट्रॉमा सेंटर की जरूरत
विनय ने कहा कि प्रदेश न केवल प्राकृतिक आपदा, बल्कि दुर्घटना के लिहाज से भी संवेदनशील है। शहर के सरकारी अस्पताल किसी बड़ी आपदा से निपटने को तैयार नहीं हैं। बीते दौर में एकाध नहीं कई घटनाएं हैं, जिन्होंने इन अस्पतालों की पोल खोल दी है। ऐसे में शहर को एक बड़े और सभी सुविधाओं वाले ट्रॉमा सेंटर की जरूरत है। दून मेडिकल कॉलेज में केंद्र की मदद से बर्न यूनिट और ट्रॉमा सेंटर का निर्माण किया जा रहा है। यह प्रदेश में अब तक का सबसे बड़ा ट्रॉमा सेंटर होगा। इससे एक उम्मीद जरूर बंधी है।
दिव्यांगों की कर रहे सेवा
विनय कुमार सैनी पिछले 18 वर्षों से दिव्यांग नौनिहालों की सेवा में जुटे हैं। वह पछवादून विकलांग अभिभावक एसोसिएशन के माध्यम से आयोजित शिविरों में बच्चों को सहायता उपकरण वितरित करते हैं। साथ ही उनमें आत्मविश्वास जगाने के लिए खेलकूद प्रतियोगिता भी आयोजित की जाती हैं।
विनय ने वर्ष 1999 में पछवादून के शारीरिक रूप से अक्षम नौनिहालों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने की मुहिम शुरू की थी। पहले पहल इस कार्य में उन्हें तमाम परेशानियां झेलनी पड़ी। सबसे बड़ी चुनौती ऐसे नौनिहालों को चिह्नित करने की थी। उन्होंने शिक्षा विभाग की मदद से इसकी सूची तैयार की और जुट गए सेवा में।
...ताकि स्वस्थ रहे समाज
हमारे यहां हेल्थकेयर का मतलब कोई बीमार हो जाए तो उसकी देखरेख करने को माना जाता है। सही मायने में सबसे पहले ध्यान प्रिवेंटिव हेल्थकेयर यानी सावधानियां बरतने पर जाना चाहिए। साफ पानी, साफ हवा और पोषण पर ध्यान दिया जाए तो अस्पताल खोलने का खर्च बहुत हद तक कम हो जाता है। गौर करने वाली बात यह है कि भारत में सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का 1.4 फीसदी स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च होता है, यानी प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर प्रतिदिन तकरीबन तीन रुपए खर्च होते हैं।