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Private School: आफलाइन और आनलाइन पढ़ाई को लेकर कसमसा रहे निजी विद्यालय

सरकार ने गाइडलाइन में इसीवजह से अभिभावकों की सहमति की शर्त जोड़ दी है। ऐसे में विद्यालयों को गैर हाजिर रहने वाले छात्रों को आनलाइन पढ़ाई करानी पड़ रही है। यही दोहरी व्यवस्था झुंझलाहट की बड़ी वजह है। हालांकि इसका समाधान सब्र करने में ही है।

By Sumit KumarEdited By: Published: Thu, 07 Oct 2021 01:27 PM (IST)Updated: Thu, 07 Oct 2021 01:44 PM (IST)
Private School: आफलाइन और आनलाइन पढ़ाई को लेकर कसमसा रहे निजी विद्यालय
कोरोना संकट काल में आफलाइन और आनलाइन पढ़ाई को लेकर निजी विद्यालय कसमसा रहे हैं।

रविंद्र बड़थ्वाल, देहरादून: Private School कोरोना संकट काल में आफलाइन और आनलाइन पढ़ाई को लेकर निजी विद्यालय कसमसा रहे हैं। माध्यमिक के बाद अब प्राथमिक विद्यालय भी आफलाइन पढ़ाई के लिए खोले जा चुके हैं। डेढ़ साल से बंद पड़े विद्यालयों को खोलने के लिए इनके प्रबंधक और संचालक मशक्कत कर रहे थे। विद्यालय खोलने के साथ यह शर्त भी जोड़ी गई कि छात्रों को आने के लिए दबाव नहीं बनाया जाएगा। अभिभावकों की सहमति से ही छात्र विद्यालय आएंगे।

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कोरोना काल में बच्चों को ज्यादा खतरे का अंदेशा है। सरकार ने गाइडलाइन में इसीवजह से अभिभावकों की सहमति की शर्त जोड़ दी है। ऐसे में विद्यालयों को गैर हाजिर रहने वाले छात्रों को आनलाइन पढ़ाई करानी पड़ रही है। यही दोहरी व्यवस्था झुंझलाहट की बड़ी वजह है। हालांकि इसका समाधान सब्र करने में ही है। बच्चों के लिए वैक्सीनेशन का बंदोबस्त होते ही अभिभावक शायद ही उन्हें विद्यालय जाने से रोकने में रुचि लें।

चंद महीने का कार्यकाल

उच्च शिक्षा को स्थायी निदेशक मिलता तो है, लेकिन चंद महीनों के लिए ही। दरअसल निदेशक का पद पदोन्नति का है। संयुक्त निदेशक यानी राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय के प्राचार्य पद तक आते-आते शिक्षक सेवानिवृत्ति के कगार पर पहुंच जाते हैं। सरकार ने हाल ही में डीपीसी के बाद डा प्रमोद कुमार पाठक को उच्च शिक्षा निदेशक नियुक्त किया है। डा पाठक के पास महज तीन महीने हैं। इसके बाद यह पद फिर रिक्त हो जाएगा। इससे पहले निदेशक रहीं डा कुमकुम रौतेला का कार्यकाल भी बहुत लंबा नहीं रहा था। स्थायी निदेशक को पर्याप्त कार्यकाल नहीं मिलने का सीधा असर हल्द्वानी स्थित उच्च शिक्षा निदेशालय पर पड़ रहा है। चंद महीने के कार्यकाल को पूरा करने के दौरान निदेशक का ज्यादातर वक्त राजधानी देहरादून में बीत जाता है। निदेशालय की व्यवस्था गाहे-बगाहे कामचलाऊ अंदाज में चलने को मजबूर है। फिलहाल इस समस्या का निदान विभाग के पास भी नहीं है।

गुणवत्ता की दुखती रग

उत्तराखंड की दुखती रग पर एक बार फिर दबने जा रही है। राज्य बनने के बाद 20 वर्ष से ज्यादा की अवधि में प्राथमिक से लेकर माध्यमिक तक स्कूलों की संख्या काफी बढ़ी है। इस मामले में गाहे-बगाहे शिक्षा विभाग अपनी पीठ खुद ही थपथपा लेता है, लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता की बात जब होने लगती है तो मुश्किलें बढ़ जाती हैं। केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय अगले महीने फिर नेशनल एसेसमेंट सर्वे कराने जा रहा है। हर दो साल में होने वाला यह सर्वे 2017 के बाद नहीं हुआ है। कोरोना संकट की वजह से इस पर ब्रेक लग गया था। सर्वे में कक्षा तीन, पांचवीं, आठवीं और दसवीं में शिक्षा के स्तर का मूल्यांकन किया जाएगा। बीते वर्षों में प्राथमिक और पूर्व माध्यमिक कक्षाओं में शिक्षा की गुणवत्ता के मोर्चे पर राज्य की हालत काफी पतली रही है। इसीलिए सर्वे के नाम से ही विभाग की घिग्घी बंधने लगती है।

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शिक्षक संगठनों में विवाद

शिक्षक संगठनों में इन दिनों मारामारी मची है। पहले प्राथमिक शिक्षकों का सबसे बड़े संगठन विवादों में घिरा। प्राथमिक शिक्षक संघ में चुनाव को लेकर शिक्षक नेता आमने-सामने हैं। मामला शिकायतों के दौर से आगे बढ़ा तो विभाग को भी हस्तक्षेप करना पड़ा। इसके बाद यह मसला समाधान की राह पर आगे बढ़ता दिख रहा है। अब राजकीय माध्यमिक शिक्षक संघ के अध्यक्ष और महासचिव अलग-अलग राह पकड़ चुके हैं। संघ के चुनाव को लेकर शिक्षा निदेशक ने सदस्यता सूची और आडिट रिपोर्ट तलब की थी। संघ के अध्यक्ष कमल किशोर डिमरी ने इन दोनों की सूचनाओं की जानकारी न होने का हवाला देते हुए कार्यकारिणी भंग करने की सिफारिश कर दी। साथ में निदेशक से संयोजक मंडल के गठन की मांग की गई। इससे खफा संघ के महासचिव सोहन सिंह माजिला ने अध्यक्ष के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर तेज हो चुका है। विभाग मजे में है।

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