Badrinath Yatra 2020: कपाट खुलने पर तिलों के तेल से होता है भगवान बदरी विशाल का अभिषेक, सदियों पुरानी है ये परंपरा
राजमहल में पिरोये गए तिलों के तेल से ही कपाट खुलने पर भगवान बदरी विशाल का अभिषेक किया जाता है। राजपरिवार से जुड़ी सुहागिनें तिलों का तेल निकालती हैं।
देहरादून, जेएनएन। टिहरी जिले के नरेंद्रनगर राजमहल में पिरोये गए तिलों के तेल से ही कपाट खुलने पर भगवान बदरी विशाल का अभिषेक किया जाता है। राजमहल में पीत वस्त्रों में सुसज्जित राजपरिवार से जुड़ी सुहागिनें तिलों का तेल निकालती हैं। इसके बाद गाडू घड़ा (तेल कलश) यात्रा बदरीनाथ धाम के लिए प्रस्थान करती है। इस बार लॉकडाउन के चलते बदरीनाथ धाम के कपाट 15 मई को ब्रह्ममुहूर्त में 4.30 बजे खोले जा रहे हैं। आइए, आपको बताते हैं गाडू घड़ा (तेल कलश) यात्रा के बारे में।
नरेंद्रनगर राजमहल से रवाना होती है तेल कलश यात्रा
धार्मिक परंपराओं के अनुसार श्री बदरीनाथ धाम के कपाट खुलने की प्रक्रिया टिहरी जिले के नरेंद्रनगर राजमहल से कलश यात्रा के प्रस्थान के साथ शुरू हो जाती है। बसंत पंचमी पर नरेंद्रनगर राजमहल में राजपुरोहित महाराजा की जन्म कुंडली देखकर भगवान बदरी विशाल के कपाट खोलने की तिथि एवं मुहूर्त निकालते हैं। इसी दिन तेल पिरोने की तिथि भी तय होती है।
इसी तेल से होता है भगवान का अभिषेक
नरेंद्रनगर राजमहल में पिरोये गए तिलों के तेल से ही कपाट खुलने पर भगवान बदरी विशाल का अभिषेक किया जाता है। इसके बाद ही भगवान के स्नान-पूजन की क्रियाएं संपन्न होती हैं। परंपरा के अनुसार टिहरी रियासत (पूर्व में गढ़वाल रियासत) के राजाओं को बोलांदा बदरी (बोलने वाले बदरी) कहा जाता है। यही कारण है कि बदरीनाथ धाम के कपाट खोलने की तिथि एवं मुहूर्त राजाओं की कुंडली के हिसाब से निकाले जाते हैं। नरेंद्रनगर राजमहल में पीत वस्त्रों में सुसज्जित राजपरिवार से जुड़ी सुहागिनें तिलों का तेल निकालती हैं। इस दौरान सुहागिनें व्रत धारण कर पीले रंग के कपड़े से मुंह व सिर ढककर रखती हैं। तेल निकालने के बाद उसे एक घड़े में भरा जाता है, जिसे गाडू घड़ा कहते हैं।
15 मई को ब्रह्ममुहूर्त में 4.30 बजे बदरीनाथ धाम के कपाट
तेल कलश डिम्मर गांव स्थित श्री लक्ष्मी-नारायण मंदिर में रखा जाता है। गांव में पहुंचने पर तेल कलश की पूजा-अर्चना होती है। बदरीनाथ धाम के कपाट खुलने से चार दिन पूर्व तेल कलश को डिम्मर गांव से जोशीमठ स्थित नृसिंह मंदिर लाया जाता है। अगले दिन नृसिंह मंदिर से बदरीनाथ के मुख्य पुजारी रावल ईश्वरी प्रसाद नंबूदरी की अगुआई में तेल कलश के साथ आदि शंकराचार्य की गद्दी रात्रि विश्राम के लिए योग-ध्यान बदरी मंदिर पांडुकेश्वर पहुंचती है। अगले दिन यात्रा बदरीनाथ धाम के लिए रवाना होती है। इसमें गरुड़जी, देवताओं के खजांची कुबेरजी व भगवान नारायण के बालसखा उद्धवजी की डोलियां शामिल होती हैं। परंपरा के अनुसार ब्रह्ममुहूर्त में बदरीनाथ धाम के कपाट खोले जाते हैं।
आदि शंकराचार्य अपने साथ लाए थे तीन शिष्यों को
मान्यता है कि नवीं सदी की शुरुआत में जब आदि शंकराचार्य बदरीनाथ पहुंचे थे तो केरल से तीन शिष्यों को भी अपने साथ लाए थे। जब शंकराचार्य ने बदरिकाश्रम क्षेत्र छोड़ा तो शिष्य को यहीं रहने का आदेश दिया। यही शिष्य चमोली जिले के डिम्मर गांव में जाकर बस गए। कालांतर में डिम्मर गांव के नाम से ये डिमरी कहलाने लगे। कहते हैं कि आदि शंकराचार्य ने ही इन्हें बदरीनाथ धाम में पूजा का हक प्रदान किया था। इसलिए कपाट खुलने पर डिमरी समुदाय के प्रतिनिधि भी बदरीनाथ धाम में मौजूद रहते हैं।