ग्रीन बोनस पर उत्तराखंड की मंजिल अभी दूर
आजतक भी उत्तराखंड की ग्रीन बोनस की मांग पर कोर्इ सुनवार्इ नहीं हुर्इ है। जिसके चलते राज्य को कर्इ तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।
देहरादून, [राज्य ब्यूरो]: पर्यावरण संरक्षण में उत्तराखंड के योगदान को भले ही राष्ट्रीय स्तर पर सराहना मिलती आ रही हो, लेकिन ये भी सच है कि इसके एवज में क्षतिपूर्ति के रूप में ग्रीन बोनस की मांग अभी भी अनसुनी है। हालांकि, विषम भूगोल और दुरूह परिस्थितियों को देखते हुए हिमालयी राज्यों के समक्ष पर्यावरण और विकास के मध्य संतुलन साधने की बड़ी चुनौती है, लेकिन उत्तराखंड को इससे ज्यादा जूझना पड़ रहा है।
दुश्वारियों पर ही गौर करें तो वन कानूनों की बंदिशों के चलते बड़ी संख्या में परियोजनाओं को आकार नहीं मिल पा रहा है। फिर चाहे वह पानी, बिजली, सड़क जैसी मूलभूत सुविधाओं से जुड़ी ही क्यों न हों। संरक्षित क्षेत्रों और इको सेंसिटिव जोन के प्रावधानों ने नींद उड़ाई हुई है। ताजा मामला, भागीरथी इको सेंसिटिव जोन का है, जिसके कठोर प्रावधानों में 10 जल विद्युत परियोजनाएं अटकी हुई हैं।
यही नहीं, प्रदेश में मानव-वन्यजीव संघर्ष भी चिंताजनक स्तर पर पहुंच गया है। राज्य बनने से अब 600 से अधिक लोग जंगली जानवरों का शिकार बने तो इसके तीन गुने तक लोग घायल हुए हैं। खेती को जंगली जानवर चौपट कर रहे हैं, सो अलग। हाल में आई पलायन आयोग की रिपोर्ट पर ही गौर करें तो पहाड़ के गांवों से हो रहे पलायन के पीछे वन कानूनों के कारण सुविधाएं न पसर पाना और जंगली जानवरों का खौफ भी एक बड़ी वजह है।
इतना सबकुछ सहने के बाद भी पर्यावरण की सुरक्षा के एवज में ही राज्य की ओर से ग्रीन बोनस अथवा इसी तरह के अन्य इंसेटिव की मांग लगातार उठाई जा रही है, ताकि स्थानीय जनमानस के जख्मों पर कुछ मरहम लग सके।
पिछली सरकार के कार्यकाल में केंद्र ने इसे लेकर हामी भी भरी, मगर प्रभावी पहल नहीं हो पाई। हालांकि, केंद्र की मौजूदा सरकार ने सत्तासीन होने के बाद हिमालयी राज्यों को लेकर कुछ रुचि अवश्य दिखाई, मगर ग्रीन बोन पर बात अभी भी अधर में है। हालांकि, राज्य सरकार इस मसले पर केंद्र के समक्ष राज्य की पीड़ा को बखूबी रख रही है। अब देखना होगा कि केंद्र इस पर कब और क्या पहल करता है।
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